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१६, पातञ्जलयोगदर्शन में क्रियायोग की अवधारणा
मनुष्य जो भी प्रयत्न करता है, वह दुःख मुक्ति और सुखप्राप्ति के लिए करता है। आनन्द आत्मा का सहज धर्म है। वह हर मनुष्य के अन्तस्तल में विद्यमान है किन्तु मन जब बाह्य विषयों में निरत रहता है तब अन्तस्तल में छिपे हुए आनन्द का अनुभव करने में वह समर्थ नहीं होता है। आनन्द प्राप्ति के लिए, आत्मदर्शन के लिए चित्त का अन्तर्मुखी होना अत्यन्त आवश्यक है। चित्त में विभिन्न प्रकार के विक्षेप आते रहते हैं फलतः वह समाधि का अनुभव नहीं कर पाता। समाधिशून्य चित्त में दुःख, पीड़ा का ही प्रादुर्भाव हो सकता है। आनन्द का स्फुरण वहां सुलभ नहीं है।
समाधि का स्वरूप
पातञ्जलयोगसूत्र में समाधि एवं योग को एकार्थक माना गया है। योगः समाधिः। योग ही समाधि है। योग की/समाधि की निष्पत्ति चित्तवृत्ति के निरोध से प्राप्त हो सकती है। योगदर्शन में चित्तवृति के निरोध को ही योग कहा गया है-योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध के भेद से चित्त पांच प्रकार का है। योग अर्थात् समाधि चित्त की सब भूमिओं में होने वाला धर्म है। क्षिप्त चित्त रजोगुण प्रधान, मूढ़चित्त तमोगुण प्रधान, किञ्चित् रजः सहित सत्व बहुल विक्षिप्त, विशुद्ध सत्वगुण प्रधान एकाग्र और संस्कारमात्रशेष निरुद्ध चित्त कहलाता है। चित्त के तरंगरूप परिणाम को वृत्ति कहते हैं। इन चित्तवृत्तियों के स्वभाव सिद्ध प्रवाह का स्वकारण चित्त में विलीन हो जाना निरोध है। चित्त की क्षिप्त अवस्था में तमोगुण तथा सत्वगुण का निरोध है। मूढ़ अवस्था में रजोगुण तथा सत्वगुण का निरोध है। विक्षिप्त अवस्था में केवल तमोगुण का निरोध है। एकाग्र अवस्था में केवल ध्येयाकार वृत्ति को छोड़कर बाह्य आभ्यन्तर सकल वृत्तियों का निरोध होता है और निरुद्ध अवस्था में उस ध्येयाकार वृत्ति का भी निरोध हो जाता है अतः चित्त की पांचों भूमियों में कुछ-न-कुछ निरोध अवश्य रहता
व्रात्य दर्शन - १६३
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