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________________ कहा जा सकता है। जैसे लोकप्रसिद्ध है 'अन्नं वै प्राणा' यह औपचारिक कथन है, अन्न जीवित रहने में निमित्त बनता है उसे प्राण कह दिया गया। इस प्रकार के अनेक कथन लोक व्यवहार में प्रचलित है। औपचारिक रूप से उसे प्रमाण मानने में कोई बाधा नहीं है। शक्तिविकलता के कारण छद्मस्थ प्रकाश, इन्द्रिय आदि के बिना ज्ञान नहीं कर सकते। उनको इनके सहारे की अपेक्षा होती है। उनकी इस शक्तिविकलता के आधार पर कारकसाकल्य को प्रमाण कहना उचित नहीं है। अतीन्द्रिय ज्ञान जो वादी-प्रतिवादी दोनों को अभीष्ट है कारक साकल्य को प्रमाण मानने से अतीन्द्रिय ज्ञान का स्वरूप ही सिद्ध नहीं होगा। प्रमाण का लक्षण कारकसाकल्य को स्वीकार करने से वह प्रमाण का लक्षण अव्याप्तलक्षणाभास से दूषित होगा। क्योंकि कारक साकल्यता स्वीकार करें भी तो वह छद्मस्थ ज्ञान में प्रविष्ट हो सकती। योगज ज्ञान में उसका प्रवेशाधिकार निषिद्ध है अतः कारकसाकल्य प्रमाण नहीं हो सकता। सर्व विशुद्ध निर्दोष ज्ञान ही प्रमाण है। ज्ञान प्रमाण होने से 'लिखितं साक्षिणो भुक्ति प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम्' इसका निराकरण हो गया। ज्ञान ही मुख्य रूप से प्रमाण शब्द व्यपदेशाह है। यथा 'यद्यत्राऽपरेण व्यवहितं न तत्तत्र मुख्यरूपतया साधकतम व्यपदेशार्हम् यथा हि छिदिक्रियायां कुठारेण व्यवहितोऽयस्कारः, स्वपरपरिछित्तौ विज्ञानेन व्यवहितं च परपरिकल्पितं साकल्यादिकमिति। तस्मात् कारकसाकल्यादिकं साधकतमव्यवपेशार्ह न भवति।' कारक साकल्य स्व पर परिच्छित्ति में ज्ञान व्यापार से व्यवहित होने के कारण साधकतम नहीं है। जिस प्रकार छिदिक्रिया में व्याप्त अयस्कार कुठार से व्यवहित होने के कारण साधकतम नहीं है। जो साधकतम नहीं है वह प्रमाण नहीं है। अतएव निष्प्रतिपक्ष यह सिद्ध हो जाता है ज्ञान प्रमाण है। ज्ञान भिन्न परपरिकल्पित कारकसाकल्य प्रमाणत्व के क्षेत्र में मुख्य प्रमाण के रूप में स्थान प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञान ही साधकतम है। प्रमा का करण है अतः वही सर्वतोभावेन प्रमाण है। १६२ . व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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