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________________ में भी विवाद का विषय है जिसकी चर्चा पृथक्रूप से अन्यत्र वाञ्छित है। सूत्र में प्रदत्त ज्ञान शब्द का प्रयोजन स्पष्ट है। ज्ञान से भिन्न अज्ञान रूप कारकसाकल्य, सन्निकर्ष, इन्द्रियवृत्ति इत्यादि को जो प्रमाण मानते हैं, उनका निराकरण ज्ञान शब्द से हो जाता है। कारकसाकल्य जिसको जयन्तभट्ट प्रमाण मानते हैं। उसका निराकरण प्रमेयकमलमार्तण्ड में ज्ञान शब्द की समीक्षा में सपूर्वपक्ष किया गया है। नैयायिक मत अव्यभिचारी आदि विशेषण विशिष्ट पदार्थ ज्ञान में साधकतम कारकसाकल्य प्रमाण है। अर्थ का निर्दोष ज्ञान किसी एक कारक से नहीं हो सकता किन्तु कारकों के समूह से ही होता है। एक-दो कारकों के होने पर वह नियम से उत्पन्न होता है अतः कारकसाकल्य ही ज्ञान की उत्पत्ति में करण है, साधकतम है अतः वही प्रमाण है ज्ञान प्रमाण नहीं है। अर्थज्ञप्ति में ज्ञान भी एक माध्यम है अतः वह भी कारकसाकल्य का एक अंग है। ज्ञानप्राप्ति का हेतु है। अकेला ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता। ज्ञान के सद्भाव में भी अन्य कारकों के अभाव में अर्थज्ञान नहीं होता है अतएव ज्ञान और अज्ञान स्वरूप कारकों का साकल्य ही प्रमाण है। जैन अभिमत जैन इस मान्यता को स्वीकार नहीं करता अतएव प्रमाण परिभाषा में प्रदत्त ज्ञान विशेषण के द्वारा कारकसाकल्य की मान्यता स्वतः ही निराकृत हो जाती है। कारक साकल्य अज्ञान रूप है। वह स्व-पर की परिच्छित्ति में साधकतम नहीं हो सकता, अतः प्रमाण भी नहीं हो सकता। ज्ञान स्व-पर ज्ञप्ति में साधकतम है। ज्ञान और ज्ञेय के मध्य किसी दूसरे का व्यवधान नहीं है। कारकसाकल्य ज्ञान को पैदा करता है फिर पदार्थ का ज्ञान होता है। इस प्रकार कारकसाकल्य एवं प्रमिति के मध्य ज्ञान का व्यवधान है। ज्ञान का प्रमिति के साथ सीधा संबंध है अतः ज्ञान ही प्रमाण है। 'यद्भावे हि प्रमितेर्भावत्ता तदभावे चाभावत्ता तत्तत्र साधकतमम्' ज्ञान की साधकतमता स्वतः स्फुट है। फल स्वरूप वही प्रमाण है। अज्ञानरूप छिदि क्रिया में व्याप्त कुठार साधकतम होने पर भी अज्ञान स्वरूप होने के कारण प्रमाण नहीं है। प्रदीप आदि स्व-पर परिच्छिति में साधकतम है। यह अभ्युपगम औपचारिक है, पारमार्थिक नहीं है। कारकसाकल्य को भी उपचार से प्रमाण मानने में जैन को आपत्ति नहीं है। कारण में कार्योपचार के द्वारा ऐसा व्रात्य दर्शन • १६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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