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________________ से इस जाति का परिहार होता है। प्रयत्न का द्वैविध्य होने पर भी शब्द की प्रयत्नजन्यता में कोई संशय पैदा नहीं होता क्योंकि प्रयत्न तारतम्य से शब्द में तीव्र, मध्य, मन्द आदि भाव उपलब्ध होते हैं वे प्रयत्न द्वारा शब्द की उत्पत्ति मानने पर ही युक्तिसंगत हो सकते हैं। अभिव्यक्ति में प्रयत्न तारतम्य से कहीं तीव्र, मध्य आदि भाव दृष्टिगोचर नहीं होते हैं अतः प्रयत्न शब्द में उत्पत्ति रूप कार्य का ही हेतु है न कि अभिव्यक्ति रूप कार्य का। उपर्युक्त जाति भेदों से भिन्न अन्य भी जाति भेद हैं किन्तु उनके अनन्त भेद होने से उनके उदाहरण प्रदर्शित करना शक्य नहीं है। चौबीस जाति का उल्लेख एवं उनके समाधान का उल्लेख संक्षेप में करके मध्ययुगीन शास्त्रार्थ की स्थिति पर पाठक का ध्यान आकर्षित करने का प्रयत्न किया गया है। व्रात्य दर्शन - १५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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