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________________ जबकि न्यायसूत्र में अनित्यसम के बाद नित्यसम का उल्लेख है। २३ सम्पूर्ण पदार्थों की अनित्यता को प्रस्तुत करके निराकरण करना अनित्यसमा जाति है। जैसे--अनित्य घट के साथ शब्द की समानता है। उस समानता के कारण यदि शब्द की अनित्यता का प्रतिपादन करते हो तो, उस घट के साथ सब ही पदार्थों की कुछ न कुछ समानता है अतः इस हेतु से सारे ही पदार्थ अनित्य हो जाने चाहिए। यदि ऐसा कहो कि घट के साथ समानता होने पर भी आत्मा, आकाश आदि अनित्य नहीं है, तब शब्द भी अनित्य नहीं होना चाहिए। __ अनित्यत्वमात्र के प्रकाशनपूर्वक विशेष गुण का प्रकाशन करने के कारण अविशेषसमा नाम की अठारहवीं जाति से यह जाति भिन्न है। २४ प्रयत्नजन्य कार्यों का नानात्व बतलाकर निराकरण करना कार्यसमा जाति है। जैसे-शब्द अनित्य है क्योंकि वह प्रयत्नजन्य है। वादी के द्वारा ऐसा कहने पर जातिवादी कहता है-प्रयत्न दो प्रकार का होता है-१. प्रयत्न के द्वारा किसी असद् पदार्थ को ही पैदा किया जाता है, जैसे घट आदि। २. प्रयत्न के द्वारा आवरण के हट जाने से सत् पदार्थ ही अभिव्यञ्जित होता है जैसे-मिट्टी के नीचे दबी हुई जड़, कील आदि। इस प्रकार प्रयत्न के कार्य का नानात्व होने से संशय उत्पन्न होता है कि प्रयत्न के द्वारा शब्द अभिव्यक्त होता है अथवा प्रयत्न से शब्द उत्पन्न होता है। संशय के प्रकाशन के प्रकार में भेद होने से संशयसमा एवं कार्यसमा जाति में भेद है अर्थात् संशयसमा जाति में समानता एवं विलक्षणता के आधार पर संशय पैदा हुआ था और कार्यसमा में प्रयत्न के कार्य के नानात्व के आधार पर संशय उत्पन्न हुआ है। जाति समाधान सूत्रकार ने इस जाति का परिहार ‘साधादसिद्धेः प्रतिषेधासिद्धिः प्रतिषेध्यसाधर्म्याच्च' (न्यायसूत्र ५/३३) इस सूत्र से किया है। घट के साथ अस्तित्व रूप साधर्म्य के कारण सभी पदार्थों में अनित्यत्व आपादन का क्या प्रयोजन है? इससे शब्द के अनित्यत्व का प्रतिषेध तो बन नहीं सकता, क्योंकि सभी पदार्थों में अनित्यत्व के सिद्ध होने पर शब्द में अनित्यत्व ही सिद्ध होता है। नित्यत्व सिद्ध नहीं होता तथा साधर्म्य से असिद्धि मानने पर प्रतिषेध साधर्म्य से प्रतिषेध की भी असिद्धि होने लगेगी। "कार्यान्यत्वे प्रयत्नाहेतुत्वमनुपलब्धिकारणोपपत्तेः' (न्यायसूत्र ५/३८) इस सूत्र १५८ . व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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