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________________ २२ साध्यधर्म में नित्यता एवं अनित्यता के विकल्प के द्वारा शब्द की नित्यता को प्रकाशित करना नित्यसमा जाति है । जैसे- ' शब्द अनित्य है' इस प्रकार की प्रतिज्ञा का प्रयोग करने पर जातिवादी प्रश्न करता है कि - यह जो शब्द की अनित्यता कही गयी हैं वह अनित्यता नित्य है या अनित्य है? यदि अनित्य है तब यह अनित्यता अवश्य ही नष्ट होने वाली है और तब अनित्यता के नाश होने से शब्द नित्य हो जायेगा । यदि वह अनित्यता नित्य ही है तो फिर धर्म के नित्य होने से उसका आश्रय शब्द भी नित्य होना चाहिए क्योंकि धर्म, धर्मी के बिना निराधार नहीं रह सकता । शब्द के अनित्य होने पर शब्द का धर्म अनित्य, नित्य नहीं हो सकता। इस तरह दोनों ही प्रकार से शब्द नित्य सिद्ध हो जाता है । जाति समाधान सूत्रकार ने अनुपलब्धिसम दोष का परिहार करते हुए 'अनुपलम्भात्मकत्वादनुपलब्धेरहेतुः न्यायसूत्र (५/३०) इस सूत्र को उपस्थित किया है अर्थात् अनुपलब्धि उपलम्भाभावमात्र है। हम इतनी ही प्रतिज्ञा करते हैं कि यहां 'जो है' वह उपलब्धि का विषय है । 'जो नहीं है' वह अनुपलब्धि का विषय है । 'नास्ति इस आकार वाले ज्ञान की अनुपलब्धि है - और वह ज्ञान के अभाव रूप से सर्वानुभव सिद्ध है, और उसी रूप से सबको उपलब्ध है । अतः अनुपलब्धि की अनुपलब्धि नहीं बन सकती और अनुपलब्धि की अनुपलब्धि न होने से अनुपलब्धि का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता अतः तद्विपरीत शब्द आदि की सत्तारूप अनिष्ट का आपादन भी संभव नहीं है । शब्द की उत्पत्ति प्रयत्नपूर्वक ही होती है अतः शब्द अनित्य है। उसकी सत्ता सार्वकालिक नहीं है । अनुपलब्धि समजाति इस तथ्य को निराकृत नहीं कर सकती । नित्यसम जाति का परिहार सूत्रकार ने 'प्रतिषेध्ये नित्यमनित्यभावादिनित्येऽनित्यत्वोपपत्तेः प्रतिषेधाभावः' (न्यायसूत्र ५ / ३६ ) इस सूत्र से किया गया है अर्थात् जब प्रतिषेध्य शब्द में अनित्यत्व के नित्य रहने से, ऐसा कहने से जातिवादी के द्वारा शब्द में अनित्यता स्वीकार कर ली गयी है अतः अनित्यत्व युक्ति से शब्द अनित्य नहीं है यह प्रतिषेध नहीं बनता है और यदि शब्द में नित्य, अनित्यत्व स्वीकार नहीं करते हो तो वह हेतु नहीं बनेगा अतः हेतु के अभाव में उसका प्रतिषेध नहीं हो सकेगा । हेमचन्द्राचार्य ने नित्यसम जाति का उल्लेख अनित्यसम से पहले किया है। व्रात्य दर्शन • १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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