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________________ होता, इस अर्थ की अवगति होती है तथा यह अर्थ व्यभिचारी है क्योंकि जलरूप द्रव्य का पतन भी अनुभव सिद्ध है अतः ऐसी अनैकान्तिक अर्थापत्ति के द्वारा अनिष्टापादन संभव नहीं है । अविशेषसम जाति का समाधान सूत्रकार ने 'क्वचिद्धर्मानुपपत्तेः क्वचिच्चोपपत्तेः प्रतिषेधाभावः' ( न्यायसूत्र ५ / १/२४) इस सूत्र से किया है । समस्त पदार्थों में साम्य सिद्ध करने पर प्रत्यक्षादि से विरोध उपस्थित होता है । यदि नित्यत्व अथवा अनित्यत्व से सभी के साम्य का कथन किया जाये, तो वह अनुमान आदि प्रमाण से विरुद्ध है अर्थात् कहीं कार्यत्व रूप प्रमाण से घट आदि में अनित्य धर्म की युक्ति युक्तता है तथा कहीं पर अन्य हेतु से वस्तु में नित्यधर्मता भी है अतः सभी पदार्थों में अविशेष रूप अनिष्ट का आपादन प्रमाण विरुद्ध होने से सम्भव नहीं है । तथा घट आदि में एवं शब्द में अनित्यत्व के साधक कार्यत्व धर्म की कारणत्वेन उपपत्ति संभव है, अतः उसमें साम्यता का आपादन किया जा सकता है किंतु सभी पदार्थों में अविशेषता के आपादक किसी धर्म की कारणत्वेन उपपत्ति संभव नहीं है अतः उन सब में समानता का स्वीकरण संभव नहीं है । १६ उपपत्ति - युक्ति के द्वारा निरास करना उपपत्तिसमा जाति है । जैसे-यदि कृतकत्व की युक्ति से शब्द अनित्य है तो निरवयवत्व की युक्ति से नित्य भी क्यों नहीं होगा ? नित्यता एवं अनित्यता इन दोनों पक्षों की युक्ति से सिद्धि होने से तथ्य की अनिश्चय में समाप्ति होती है। यह जाति भी दोष के प्रकटीकरण के प्रकार के कारण ही भिन्न है । २० उपलब्धि के द्वारा निराकरण करना उपलब्धिसमा जाति है । जैसे- शब्द अनित्य है क्योंकि प्रयत्नजनित है ऐसा वादी के द्वारा कहने पर जातिवादी खण्डन करते हुए कहता है- प्रयत्नजन्यता अनित्यत्व सिद्ध करने में साधन नहीं है क्योंकि साधन वही कहलाता है जिसके बिना साध्य की उपलब्धि ही न हो किंतु विद्युत् आदि में प्रयत्नजन्यता के बिना भी अनित्यता उपलब्ध होती है तथा वायुवेग से टूटने वाली वनस्पति आदि से उत्पन्न शब्द में भी प्रयत्नजन्यता के बिना भी अनित्यता पाई जाती है। इसलिए कृतकत्व अनित्यता का हेतु नहीं है । जाति समाधान 'उपपत्तिकारणाभ्यनुज्ञानादप्रतिषेधः' (न्यायसूत्र ५ / २६ ) इस सूत्र के द्वारा उपपत्तिसम जाति का समाधान किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only व्रात्य दर्शन १५५ www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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