________________
से पश्चाद्भावी हैं। कोई ज्ञापक हेतु साध्य सहभावी होता है। जैसे-रूप आदि स्पर्शादि के ज्ञापक हैं और वे ज्ञाप्य, ज्ञापक द्रव्य में साथ उत्पन्न होने से सहभावी हैं अतः कृतकत्व आदि हेतु की त्रैकालिक असिद्धि न होने से 'अहेतुसम जाति' से दोष उद्भावन असंभव है।
१७ अर्थापत्ति द्वारा खण्डन करना अर्थापत्तिसमा जाति है। यदि अनित्य के साधर्म्य से कृतक होने से शब्द अनित्य है तो इसका अर्थ यह हुआ कि नित्य के साधर्म्य से शब्द नित्य भी है। इस शब्द की नित्य आकाश के साथ निरवयवता के कारण समानता है। दोष प्रकटीकरण के प्रकार के भेद से ही इसको पृथक् जाति कहा गया है वस्तुतः भिन्न नहीं है।
१८ अविशेष अर्थात् विशेषता का अभाव दिखलाकर खण्डन करना अविशेषसमा जाति है। जैसे-यदि शब्द और घट का एक ही धर्म कृतकत्व मानते हो, तब समान धर्म होने से उनमें घट और शब्द में कोई विशेषता नहीं है। जैसे घट और शब्द इन दोनों में कोई विशेषता नहीं है। वैसे ही सारे ही पदार्थों में विशेषता का अभाव हो जायेगा क्योंकि सभी पदार्थों में परस्पर कुछ न कुछ तो समानता रहती ही है।
जाति समाधान
अर्थापत्तिसम जाति का समाधान न्यायसूत्रकार ने 'अनुक्तस्यार्थापत्तेः पक्षहानेरुपपत्तिरनक्तत्त्वादनैकान्तिकत्वाच्चार्थापत्तेः' (न्यायसूत्र ५/१/२२) इस सूत्र से किया है। अर्थात् अर्थापत्ति द्वारा अनुक्त का भी अर्थादापादन मानने वाले को अपने पक्ष की हानि उठानी पड़ेगी क्योंकि उसके पक्ष में भी जो अनुक्त है उसका ग्रहण किया जा सकता है अतः उत्पन्न होने से 'शब्द अनित्य है' इसका अर्थापत्ति से यह अर्थ निकालना कि नित्य साधर्म्य से शब्द नित्य है, यह कथन सर्वथा असंगत है अर्थात् जिस प्रकार अनुक्त नित्यत्व पक्ष की सिद्धि अर्थापत्ति से प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार अनुक्त अनित्यत्व पक्ष की भी सिद्धि अर्थापत्ति से हो जायेगी तथा अर्थापत्ति अनैकान्तिक दोष से भी दूषित है, क्योंकि यह अर्थापत्ति दोनों पक्षों में समान रूप से उपस्थित की जा सकती है। यदि नित्य साधर्म्य तथा निरवयवत्व से आकाश की तरह शब्द का नित्यत्व सिद्ध किया जा सकता है तो प्रयत्न के पश्चात् उत्पन्न होने से वह अनित्य भी सिद्ध किया जा सकता है। एक हेतु और है कि अर्थापत्ति विपर्ययमात्र का सहारा लेकर सर्वत्र नहीं उठायी जा सकती। जैसे-'ठोस शिलाद्रव्य का पतन होता है' यह कहने पर द्रव द्रव्यों का पतन नहीं
१५४ • व्रात्य दर्शन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org