SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है तो बताये कि साध्य के अभाव में वह किसका साधन होगा? जब साध्य ही नहीं है तो साधन कैसा ? यदि साधन, साध्य के बाद में होता है, तब इसका अर्थ हुआ कि साध्य, साधन से पहले ही विद्यमान है, साधन से पहले ही साध्य के सिद्ध हो जाने पर बाद में साधन की क्या आवश्यकता है? यदि साध्य और साधन एक साथ युगपत् होते हैं, तब गौ के दाये बायें सींग के समान साथ-साथ वाले दो पदार्थों में साध्य-साधन भाव ही नहीं होगा अर्थात् त्रिकाल में ही कोई वस्तु किसी का हेतु बन ही नहीं सकेगी । जाति समाधान प्रकरणसम दोष का परिहार सूत्रकार ने 'प्रतिपक्षात्प्रकरणसिद्धेः प्रतिषेद्यानुपपत्तिः प्रतिपक्षोपपत्तेः' ( न्यायसूत्र ५ / १ / १७ ) इस सूत्र से किया है । वादि सम्मत प्रथम साधन से वादिपक्ष की सिद्धि हो जाने पर उस हेतु की निर्दोषता के कारण द्वितीय पक्ष का उत्थान ही नहीं हो सकता अतः प्रकरण सम की प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती । शब्द की अनित्यता का साधक कृतकत्व हेतु निर्दोष है, इस निर्दुष्ट हेतु के द्वारा शब्द की अनित्यता सिद्ध हो जाने पर शब्द की नित्यता को सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त निरवयव हेतु का उत्थान ही संभव नहीं है अतः यहां पर 'प्रकरणसम जाति' के द्वारा दोष की उद्भावना ही नहीं की जा सकती है I अहेतुसम जाति का समाधान करते हुए सूत्रकार ने 'न हेतुतः साध्य सिद्धे त्रैकाल्यासिद्धि:' ( न्यायसूत्र ५ / १ / १६ ) इस सूत्र का उल्लेख किया है। वस्तु की कालिक असिद्धि नहीं है क्योंकि हेतु से साध्य की सिद्धि हो जाती है। कार्य का करना तथा ज्ञाप्य का ज्ञापन ये दोनों ही जिस समय होते हैं उस समय वे अपने कारण से ही होते हैं, यह अनुभव सिद्ध है । यदि लोक सिद्ध साध्य साधनभाव का कुतर्क से अपलाप किया जाये तब तो फिर सभी हेतु अहेतु हो जाएंगे और किसी की भी कहीं पर भी प्रवृत्ति, निवृत्ति ही नहीं हो सकेगी अतः हेतु से साध्य की सिद्धि माननी ही होगी । साध्यों के साथ हेतुओं का पूर्वभाव, अपरभाव और सहभाव अनुभव के अनुसार माना जाता है । जैसे - कारक हेतु सदा साध्य कार्य से पहले ही होते हैं। कोई ज्ञापक हेतु साध्य से पूर्व तथा कोई पश्चात् भावी भी होता है । ज्ञायमान रूप आदि के ज्ञापक चक्षु, सूर्य आदि पूर्वभावी हेतु हैं । अग्नि तथा आत्मा के ज्ञापक हेतु धूम, इच्छा आदि गुण साध्य अग्नि आदि के कार्य होने व्रात्य दर्शन • १५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy