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________________ ही सिद्ध है और प्रत्यक्ष में किसी दृष्टान्त की आवश्यकता नहीं है। प्रतिदृष्टान्त सम जाति का निराकरण सूत्रकार ने 'प्रतिदृष्टान्त हेतुत्वे च नाहेतुर्दृष्टांतः' (न्यायसूत्र ५/१/११) सूत्र से किया है अर्थात् प्रतिवादी ने वादी के अनुमान में प्रतिदृष्टान्त का कथन मात्र किया है, किन्तु दृष्टान्त में किसी प्रकार के दोष का उद्भावन नहीं किया है अतः दृष्टांत निर्दुष्ट है और वह साध्य का साधक है। प्रतिदृष्टान्त के कथन मात्र से दृष्टान्त साध्य का असाधक नहीं हो सकता है तथा प्रतिदृष्टान्त का साधकत्व मानने वाले को दृष्टान्त का साधकत्व मानना ही पड़ेगा। जब तक दृष्टान्त किसी बलवत्तर प्रमाण से बाधित न हो तब तक प्रतिदृष्टान्त के रहते हुए भी दृष्टान्त का साधकत्व स्वीकार करना होगा। १३ अनुत्पत्ति अर्थात् अजन्यत्व के द्वारा खण्डन करना अनुत्पत्ति समा जाति है। जैसे-शब्द नाम के धर्मी के उत्पन्न नहीं होने पर कृतकत्व नाम का धर्म कहां रहता है? अर्थात् वह हेतु होता ही नहीं है। इस प्रकार हेतु का अभाव होने से अनित्यत्व की सिद्धि भी नहीं होती। १४ पहले जो साधर्म्यसमा एवं वैधर्म्यसमा जाति कही गयी थी, उनका ही संशय के द्वारा उपसंहार होने से संशयसमाजाति होती है। जैसे-क्या घट के समान कृतक होने से शब्द अनित्य है अथवा घट से विलक्षण एवं आकाश के सदृश निरवयव होने से नित्य है? अर्थात् शब्द की नित्यता एवं अनित्यता के बारे में संदेह बना रहता है। जाति समाधान अनुत्पत्तिसम जाति का समाधान सूत्रकार ने 'तथाभावादुत्पन्नस्य कारणोपपत्तेर्न कारणप्रतिषेधः' (न्यायसूत्र ५/१/१३) सूत्र के द्वारा किया है। किसी वस्तु को नित्य या अनित्य तभी कहा जा सकता है, जब उसका स्वरूप सिद्ध हो। खपुष्प के समान जिसका स्वरूप ही सिद्ध नहीं हो, उसे नित्य या अनित्य कुछ भी नहीं कह सकते अतः उत्पत्ति से पूर्व शब्द रूप धर्मी की सत्ता न होने से उसमें नित्यत्व धर्म की सत्ता कैसे कही जा सकती है? प्रयत्नपूर्वक उच्चारित शब्द का स्वरूप जब निष्पन्न हो जाता है तब उसमें अनित्यता का साधक कार्यत्व हेतु उत्पन्न हो जाता है, अतः नित्य शब्द की उत्पत्ति अनुपपन्न होने से हेतु को अनुत्पत्ति सम बतलाना अनुचित है। संशयसम जाति का समाधान सूत्रकार ने 'साधात्संशये न संशयो वैधादुभयथा व्रात्य दर्शन - १५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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