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करता है। प्रदीप और घट संयुक्त है परन्तु प्रदीप ही घट को प्रकाशित करता, घट प्रदीप को प्रकाशित नहीं कर सकता। इसी प्रकार वह्नि धूम संयुक्त है । परन्तु साधकत्व धूम में ही है, वह्नि में नहीं है - यह लोक व्यवस्था है। इससे यह स्पष्ट है कि कुछ कार्य प्राप्ति से होते हैं जैसे घट का निष्पादन | कर्ता - कुम्भकार, करण- दण्ड, चक्र आदि तथा अधिकरण- भूतल आदि, इन सबका मृत्पिण्ड के साथ संयोग प्राप्ति होने से ही होता है ।
अप्राप्तिसम - शत्रु पीडन के लिए जो अभिचार - मारण क्रियायें की जाती हैं उनमें क्रियाकारक के साथ शत्रु का सम्मेलन नहीं होता है फिर भी अभिचार कर्म दूरस्थ पुरुष से संयुक्त न होता हुआ भी उसे पीडित कर देता है अतः यह कोई ऐकान्तिक नियम नहीं है कि हेतु साध्य से संयुक्त अथवा असंयुक्त होकर ही साध्य की सिद्धि करे अतः प्राप्ति या अप्राप्ति से साध्य साधनभाव का प्रतिषेध नहीं किया जा सकता ।
११ अतिप्रसंग को उपस्थित करके निरास करना प्रसंगसमा जाति है । जैसे-यदि अनित्यत्व को सिद्ध करने में कृतकत्व साधन है तब कृतकत्व को सिद्ध करने के लिए क्या हेतु है और उस कृतकत्व को सिद्ध करने वाले हेतु को सिद्ध करने के लिए भी कौन-सा हेतु है ? इस प्रकार हेतु का कहीं अन्त ही नहीं होगा । अनवस्था दोष होने से यह प्रसंगसमाजाति है ।
१२ विरोधी दृष्टान्त के द्वारा खण्डन करना प्रतिदृष्टान्तसमा जाति है । जैसे- शब्द अनित्य है क्योंकि प्रयत्नजन्य है जैसे-घट । वादी के द्वारा ऐसा कहने पर जातिवादी कहता है जैसे-घट प्रयत्नजन्य होने से अनित्य देखा जाता है वैसे ही व्यतिरेक दृष्टान्तरूप आकाश नित्य होते हुए भी प्रयत्नजनित देखा जाता है क्योंकि कूप खनन के प्रयत्न के पश्चात् आकाश का उपलंभ अर्थात् प्राप्ति होती है ।
जाति समाधान
प्रसंगसमा जाति का निराकरण करते हुए न्यायसूत्रकार ने कहा कि - 'प्रदीपो - पादानप्रसंगनिवृत्तिवत्तद्विनिवृत्तिः' ( न्यायसूत्र ५/१/१०)
जिस प्रकार घट आदि के प्रकाशन के लिए उपादीयमान प्रदीप के स्वप्रकाशी होने से उस प्रदीप को प्रकाशित करने के लिए अन्य प्रदीप की अपेक्षा नहीं होती, उसी प्रकार दृष्टान्त में अनित्य आदि धर्म की सिद्धि के लिए अन्य दृष्टांत की अपेक्षा नहीं है, क्योंकि उसमें अनित्यता अन्य दृष्टान्त के बिना प्रत्यक्ष प्रमाण से
१५० • व्रात्य दर्शन
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