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सूत्र में आगत उपसंहार शब्द क्रमशः दृष्टान्त तथा साध्य का बोधक है। सिद्धि का अर्थ निश्चय है। महानस आदि सपक्ष तथा पर्वत आदि पक्ष में धूमवत्त्वरूप साधन का किञ्चित् साधर्म्य ही है पूर्ण साधर्म्य नहीं है। किञ्चित् साधर्म्य से इनमें उपसंहार अर्थात् साध्यदृष्टान्तभाव व्यवस्था हो जाती है। यह आवश्यक नहीं है कि पर्वत आदि पक्ष एवं महानस आदि दृष्टांत के सभी धर्म समान हो। पक्ष एवं सपक्ष में सर्वथा साधर्म्य न होने पर भी उनमें सर्वलोक प्रसिद्ध साध्य दृष्टान्त व्यवस्था होने में कोई आपत्ति नहीं है। इसीलिए यह मानना होगा कि साध्य और दृष्टान्त में किञ्चित् साधर्म्य से साध्य, दृष्टान्त भाव व्यवस्था हो जाने पर अन्य असमानताओं के आधार पर उस व्यवस्था का प्रतिषेध उचित नहीं है।
शब्द रूप साध्य एवं घट रूप दृष्टानत में किञ्चित् साधर्म्य है उसी के आधार पर उनकी साध्यदृष्टान्तभाव व्यवस्था हो जाती है अतः उत्कर्ष, अपकर्ष आदि जात्युत्तर इस अनुमान के उत्थान को दूषित नहीं कर सकते हैं। 'अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवत्' यह निर्दोष अनुमान है।
६-१० प्राप्ति और अप्राप्ति के विकल्प के द्वारा निरास करना क्रमशः प्राप्ति समा और अप्राप्ति समा जाति है। यथा-शब्द को सिद्ध करने के लिए जो कृतकत्व हेतु साधन रूप में प्रयुक्त किया गया है तो क्या वह कृतकत्व साधन, साध्य को प्राप्त करके सिद्ध करता है अथवा बिना प्राप्त किये ही साध्य को सिद्ध कर देता है? यदि प्राप्त करके सिद्ध करता है तब प्राप्ति तो दो विद्यमान पदार्थों की ही होती है। एक विद्यमान हो एक अविद्यमान हो तो प्राप्ति नहीं हो सकती और दोनों के ही विद्यमान होने से कौन किसका साध्य एवं साधन बनेगा, यदि ऐसा कहा जाये कि यह कृतकत्व हेतु साध्य को प्राप्त किये बिना ही साधन बन जाता है? यह कथन युक्ति संगत नहीं है। ऐसा होने से अतिप्रसंग हो जायेगा अर्थात् कोई किसी को भी सिद्ध कर देगा।
जाति समाधान
प्राप्तिसम और अप्राप्तिसम जाति का निराकरण करते हुए न्यासूत्रकार ने कहा है कि-घटादिनिष्पत्तिदर्शनात् पीडने चाभिचारादप्रतिषेधः (न्या. सू. ५/१/८) इस सूत्र के प्रथमार्ध में प्राप्तिसम का खण्डन है और उत्तरार्ध में अप्राप्तिसम का खण्डन है। ___प्राप्तिसम-जैसे मृत्पिण्ड और कुम्भकार संयुक्त है तथापि कुम्भकार आदि के द्वारा मृत्पिण्ड ही घटरूप से निर्मित होता है न कि मृत्पिण्ड कुम्भकार का निर्माण
व्रात्य दर्शन • १४६
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