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________________ जाति, असदुत्तर, असम्यक् खण्डन, दूषणाभास आदि परस्पर एकार्थवाची शब्द हैं। जाति का प्रयोग प्रमुख रूप से न्याय परम्परा के साहित्य में हुआ है। बौद्ध के प्राचीन ग्रंथों में असम्यक् खण्डन तथा जाति शब्द का प्रयोग मिलता है। दिङ्गनाग से लेकर सभी बौद्ध तार्किकों के ग्रंथों में दूषणाभास के प्रयोग का प्राधान्य रहा है। जैन तर्क ग्रंथों में जाति, मिथ्योत्तर और दूषणाभास आदि शब्दों का प्रयोग उपलब्ध होता है। सभी परम्पराओं के तर्क ग्रंथों में दूषण तथा दूषणाभासों की चर्चा का मुख्य उद्देश्य यही माना गया है कि इनका यथार्थज्ञान प्राप्त हो जाए, जिससे वादी स्वयं अपने स्थापना वाक्य में उन दोषों से बच जाए और प्रतिवादी द्वारा उद्भावित दूषणाभासों में दोष दिखाकर अपने पक्ष को निर्दुष्ट स्थापित कर दे। इसी प्रयोजन के आधार पर सभी परम्परा के तार्किकों ने अपने ग्रंथों में इनका यथायोग्य वर्णन किया है। तर्कग्रंथों में इनका विवेचन होने पर भी इनके प्रयोग के विषय में तार्किकों का मतैक्य नहीं है। वैदिक परम्परा में छल, जाति आदि के प्रयोग की स्वीकृति प्रारंभ से ही रही है। न्यायदर्शन में तो छल, जाति एवं निग्रहस्थान को सोलह तत्त्वों के अन्तर्गत स्वीकार किया है। बौद्ध परम्परा के प्राचीन ग्रंथ उपाय-हृदय आदि में जात्युत्तर के प्रयोग का समर्थन प्राप्त होता है किन्तु उत्तरवर्ती बौद्ध परम्परा में जात्युत्तर का उल्लेख तो है किन्तु उनके प्रयोग का सर्वथा निषेध है। जैन परम्परा के तर्क ग्रंथों में जाति आदि का उल्लेख तो प्राप्त होता है किन्तु इनके प्रयोग का प्रारंभ से ही निषेध रहा है। छल, जातियुक्त कथा करणीय है या नहीं? इस प्रश्न के समाधान में जैन तार्किकों ने एक स्वर से कहा-छल, जातियुक्त कथा करणीय नहीं है, वह सर्वथा त्याज्य है। यद्यपि कुछ-कुछ जैन तर्क ग्रंथों में उनके आंशिक स्वीकृति का क्षीण स्वर सुनाई देता है किन्तु यह सुझाव कभी भी जैन तार्किकों को स्वीकार नहीं हो सकता। आचार्य हेमचन्द्र ने भी छल, जाति आदि के स्वरूप का विमर्श किया किन्तु इनके प्रयोग की अनुमति नहीं दी तथा जैन की प्रकृति ही ऐसी है कि वह इनके प्रयोग की अनुमति अपनी वैराग्य प्रधान आचार-मीमांसीय पृष्ठभूमि के कारण दे ही नहीं सकता। जाति की संख्या अनन्त है अतः उनकी गणना संभव नहीं है फिर भी न्यास-सूत्रों में २४ जाति का उल्लेख अक्षपाद ने किया है। हेमचन्द्राचार्य ने भी उन्हीं का उल्लेख किया है। असम्यक उत्तर को ही जाति कहा जाता है। जब कोई वादी उदाहरण साधर्म्य से अपने साध्य की सिद्धि करता है तब प्रतिवादी १४४ . व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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