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व्याप्ति की उपेक्षा करके उदाहरण वैधर्म्य से वादी के साध्य की असिद्धि दिखलाता है अथवा वादी उदाहरण के वैधर्म्य से अपने साध्य को सिद्ध करता है, तब प्रतिवादी उदाहरण के साधर्म्य से वादी के साध्य की असिद्धि दिखलाता है, इस प्रकार वादी के कथन में प्रतिवादी मिथ्या दोष की उद्भावना करता है, उसे जाति कहा जाता है। भासर्वज्ञ ने जाति का सामान्य लक्षण करते हुये कहा है कि-'प्रयुक्ते हि हेतौ समीकरणाभिप्रायेण प्रसंगो जाति' अर्थात् किसी साध्य विशेष के अनुमान के लिए वादी द्वारा हेतु का प्रयोग करने पर प्रतिवादी वादी के पक्ष के साथ समानता के अभिप्राय से जो दोषोद्भावन करता है, उसे जाति कहते हैं।
जाति के चौबीस ही भेदों के पीछे सम शब्द का प्रयोग हुआ है। जैसे-साधर्म्यसम, वैधर्म्यसम आदि। सम शब्द की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है। उदयनाचार्य के अनुसार जातिवादी दूसरे के साधन के समान अपना भी विरोध करता है, अतः दूसरे के समान अपना व्याघात करने के कारण यह उत्तरसम कहलाता है। यद्यपि प्रतिवादी का उत्तर हेतु से अधिक उत्तम नहीं है, तथापि यदि वादी जाति (असद् उत्तर) से घबराकर उत्तर न दे सके तो उसे भी प्रतिवादी के समान निरनुयोज्यानुयोग निग्रहस्थान का पात्र बनना होगा। जिससे वादी और प्रतिवादी दोनों समान हो जाएंगे। सम शब्द का प्रयोग यह अभिप्राय भी अभिव्यक्त करता है।
आचार्य हेमचन्द्र ने छल को भी जाति की तरह असदुत्तर होने के कारण जात्युत्तर ही माना है। आचार्य हेमचन्द्र के मन्तव्य के अनुसार छल अथवा जाति इन सबका प्रतिसमाधान यथार्थ उत्तर के द्वारा ही करना चाहिए। प्रमाण-मीमांसा में इस मंतव्य का स्पष्ट उल्लेख हुआ है-'प्रतिसमाधानं तु सर्वजातीनामन्यथानुपपत्तिलक्षणानुमानपरीक्षणमेव ।' प्रमाणमीमांसा में प्रत्येक जाति का अलग-अलग उत्तर नहीं दिया गया है जबकि अक्षपाद, भासर्वज्ञ आदि ने सभी जातियों का पृथक्-पृथक् उत्तर दिया है। जात्युत्तर एवं उनके समाधान को संक्षेप में यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।
१-२ साधर्म्य एवं वैधर्म्य जाति
साधर्म्य के द्वारा निरास करना साधर्म्यसमा जाति है। जैसे-शब्द अनित्य है, कृतक होने से, घट की तरह। ऐसा अनुमान करने पर साधर्म्य प्रयोग के द्वारा ही उसका निरास कर देना, जैसे शब्द नित्य है क्योंकि निरवयव हैं, जैसे आकाश। घट के समान कतक होने से शब्द अनित्य है तो आकाश के समान निरवयव होने से शब्द नित्य है अर्थात् शब्द घट की तरह कृतक होने से अनित्य है तो
व्रात्य दर्शन • १४५
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