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व्यवस्था की। उनके अनुसार स्वपक्ष की सिद्धि कर देना जय एवं स्वपक्ष की सिद्धि न कर पाना पराजय है। निर्दुष्ट साधन वोल कर स्वपक्ष सिद्धि करने वाला वादी यदि कुछ कम या अधिक बोल भी जाता है तो उसकी पराजय नहीं हो सकती। प्रतिवादी द्वारा विरुद्ध हेत्वाभास की उद्भावना कर देने से ही उसकी जय हो जाती है फिर उसे स्वतन्त्र रूप से अपने पक्ष को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती है। प्रतिवादी द्वारा वादी के हेतु में असिद्ध अथवा अनेकान्तिक हेत्वाभास की उद्भावना करने पर वादी की तो पराजय हो जाती है किंतु प्रतिवादी की जय तब ही होती है जब वह अपने पक्ष की भी सिद्धि करे।
आचार्य अकलंक द्वारा स्थापित जय-पराजय की व्यवस्था को उनके उत्तरवर्ती सभी जैन तार्किकों ने एक स्वर से स्वीकार किया है। आचार्य हेमचन्द्र भी अकलंक की उसी परम्परा का अनुगमन करते हुए कहते हैं कि 'स्वपक्षस्य सिद्धिर्जयः, असिद्धिः पराजयः'। जैनतार्किकों की जय-पराजय की व्यवस्था नवीन प्रकार की थी तथा न्याय विकास के सम्पूर्ण इतिहास में यह अन्तिम व्यवस्था है। इस व्यवस्था का किसी ने निराकरण अभी तक नहीं किया है। जय-पराजय के सम्बन्ध में जैनों की यह महत्त्वपूर्ण उपलब्धि एवं स्वीकृति है।
१४२ . व्रात्य दर्शन
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