SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नहीं है उनका दोष रूप में कथन करे तो वह अदोषोद्भावन निग्रहस्थान से निगृहीत हो जाता है। आचार्य धर्मकीर्ति द्वारा निरूपित निग्रहस्थान भी पराजय की सम्यक् व्यवस्था नहीं कर सकते। उन्होंने असाधनाङ्वचन की विविध प्रकार की व्याख्या की है। उनके अनुसार अन्वय या व्यतिरेक दृष्टान्त में से केवल एक दृष्टान्त से ही साध्य की सिद्धि सम्भव है तो दोनों दृष्टांतों का प्रयोग करना असाधनाङ्गवचन है। त्रिरूपवचन ही साधनाङ्ग है, उनमें से किसी एक का भी कथन न करना असाधनाङ्गवचन है। प्रतिज्ञा, निगमन आदि जो साधन के अंग नहीं है उनका कथन भी असाधनाङ्वचन है। इसी प्रकार जो दूषण नहीं है उन्हें दूषण रूप में प्ररूपित करना एवं जो दूषण हैं उनका उद्भावन/प्रकटीकरण न करना अदोषोभावन है। आचार्य धर्मकीर्ति ने इन दो निग्रहस्थानों का विशद विवेचन करके भी अन्त में लिखा है कि जय लाभ के लिए स्वपक्ष सिद्धि एवं परपक्ष का निराकरण करना आवश्यक है। न्याय परंपरा में छल, जाति आदि का प्रयोक्ता अपने पक्ष की सिद्धि किए बिना छल आदि के द्वारा ही जय को प्राप्त कर लेता है अर्थात् न्याय परंपरा के अनुसार जय लाभ के लिए स्वपक्ष की सिद्धि करना अनिवार्य शर्त नहीं है। आचार्य धर्मकीर्ति ने इस सिद्धांत को मान्य नहीं किया। उन्होंने कहा छल आदि का प्रयोग सत्यमूलक नहीं है अतः वयं है। तत्त्वरक्षणार्थं सद्भिरूपहर्त्तव्यमेव छलादि तस्मान्न ज्यायानयं तत्त्वरक्षणोपायः वादन्याय पृ. ७१ छल आदि के द्वारा किसी को गौण कर देने मात्र से जय नहीं हो सकती है अतएव धर्मकीर्ति के कथनानुसार एक की पराजय से दूसरे की जय होना आवश्यक नहीं है। इस प्रकार धर्मकीर्ति ने न्यायदर्शन सम्मत जय-पराजय की व्यवस्था में संशोधन किया किंतु उनके द्वारा प्रदत्त असाधनाङ्गवचन एवं अदोषोद्भावन की व्यवस्था भी अत्यंत जटिल एवं दुरूह हो गई उसमें संशोधन जैनाचार्य भट्ट अकलंक ने किया। जैन तार्किकों ने न्यायपरम्परा सम्मत एवं बौद्धपरम्परा सम्मत निग्रह स्थानों को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने जय-पराजय की व्यवस्था निग्रहस्थान के द्वारा नहीं की अतः अक्षपाद सम्मत बाईस एवं बौद्ध सम्मत दो निग्रहस्थानों की उन्होंने समीक्षा की। भट्ट अकलंक ने सर्वप्रथम जैन परम्परा में जय-पराजय की स्वतंत्र व्रात्य दर्शन , १४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy