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में विप्रतिपति को परिभाषित करते हुए कहा - साधनाभासे साधनबुद्धिर्दूषणाभासे च दूषणबुद्धिः विप्रतिपतिः अर्थात् साधनाभास को साधन मानना तथा दूषणाभास को दूषण मानना विप्रतिपति नाम का निग्रह स्थान है । अप्रतिपतित्वारम्भविषयेऽनारम्भः अर्थात् जो करना चाहिए वह नहीं करना तथा जो नहीं करना चाहिए उसे करना अप्रतिपति नाम का निग्रह स्थान है । इन दो मुख्य निग्रहस्थान के प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञासंन्यास आदि बाईस भेद किए गए हैं। जिनमें अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप एवं पर्यनुयोज्योपेक्षण अप्रतिपत्ति के भेद हैं तथा अवशिष्ट सतरह विप्रतिपति के भेद हैं।
न्याय परम्परा में अक्षपाद ने जिन बाईस निग्रह स्थानों का वर्णन किया था, आज तक वे ही निग्रहस्थान बिना किसी परिवर्तन एवं परिवर्धन के न्याय परम्परा में स्वीकृत है, चरक ने भी निग्रह स्थान की चर्चा की है, उनकी अक्षपादवर्णित निग्रहस्थानों से अक्षरक्षः समानता तो नहीं है किंतु उन दोनों के वर्णन की आधारभूमि एक ही है ।
बौद्ध परम्परा के प्राचीन ग्रंथों में निग्रहस्थान की चर्चा अक्षपाद तथा कहीं-कहीं पर चरक जैसी है । न्यायदर्शन वर्णित निग्रहस्थानों को ही उन्होंने स्वीकार किया किंतु उत्तरवर्ती बौद्ध विद्वानों को पराजय की यह व्यवस्था उचित नहीं लगी अतः उन्होंने न्यायसम्मत निग्रहस्थान का निराकरण कर स्वसम्मत निग्रहस्थान का निरूपण किया। बौद्ध विद्वान धर्मकीर्ति ने अपने 'वाद - न्याय' नामक ग्रन्थ में निग्रहस्थान का लक्षण एक कारिका में स्वतंत्र रूप से निरूपित किया है तथा अक्षपाद के निग्रहस्थान के विचार का निराकरण किया है।
आचार्य धर्मकीर्ति ने वाद न्याय में अक्षपादसम्मत निग्रहस्थान के निराकरण करते हुए लिखा कि सम्यक् साधना को प्रस्तुत करने वाले वादी की इसलिए पराजय नहीं हो सकती कि वह कुछ कम या ज्यादा वक्तव्य दे दे अथवा किसी अमुक प्रकार के नियम का पालन न करें। यदि उसके पक्ष की सिद्धि हो जाती है तो उसे पराजित कैसे किया जा सकता है? अतः वादी के लिए असाधनाङ्गवचन और प्रतिवादी के लिए अदोषोद्भावन ये दो ही निग्रहस्थान / पराजय के हेतु मानने चाहिए । वादी का यह कर्तव्य है कि वह निर्दोष और पूर्ण साधन बोले । इसी प्रकार प्रतिवादी का भी यह कर्तव्य है कि वह यथार्थ दोषों की उद्भावना करे । यदि वादी निर्दोष साधन का कथन नहीं करता है अथवा जो साधन के अंग नहीं है ऐसे वचनों को बोलता है तो वह असाधनाङ्ग नाम के निग्रह स्थान से निगृहीत हो जाता है । प्रतिवादी यदि यथार्थ दोषों का उद्भावन न करे अथवा जो दोष
१४० व्रात्य दर्शन
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