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________________ १६. शास्त्रार्थ में जय-पराजय की व्यवस्था के नियम प्राचीन शास्त्रों में तत्त्व-चर्चा के नियमों का उल्लेख प्राप्त होता है। प्रारम्भ में ज्ञान की वृद्धि, तत्त्व-निर्णय आदि के लिए चिंतकों में परस्पर चर्चा परिचर्चा / वाद-विवाद होते थे । कालान्तर में उस चर्चा के उद्देश्य में परिवर्तन हो गया, जो कथा वीतराग कथा होती थी, वह विजिगीषु कथा में परिणत हो गई। जय-पराजय वाद का मुख्य प्रयोजन बन गया। जब वाद में जय-पराजय की प्रमुखता हो गई तब निर्णय किया गया कि कथा चतुरंग होनी चाहिए अर्थात् सभापति, सभ्य, वादी एवं प्रतिवादी ये चार पक्ष कथा के समय अनिवार्य रूप से उपस्थित होने चाहिए। इनमें से एक भी यदि अनुपस्थित हो तो कथा नहीं हो सकती । वादी, प्रतिवादी का पक्ष परस्पर विरोधी होता है। एक-दूसरे से विपरीत होता है । वादी, प्रतिवादी सभा के मध्य अपने-अपने पक्ष का अपने तर्कों के द्वारा समर्थन करते हैं। एक-दूसरे के पक्ष का निराकरण करते हैं । उसके द्वारा परस्पर एक-दूसरे की जय अथवा पराजय होती है। प्राचीन ग्रंथों में उस जय / पराजय के नियम बने हुए हैं। 1 नैयायिक दर्शन में जय-पराजय के नियमों को निग्रहस्थान कहा गया है। निग्रह अर्थात् तिरस्कार । वाद के समय वादी का कर्तव्य होता है कि वह सम्यक् साधन के प्रयोग के द्वारा स्वपक्ष की सिद्धि करें तथा प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत किए गए दूषणों का उद्धार करें। प्रतिवादी का यह कर्तव्य होता है कि वादी के पक्ष को दूषित बताकर स्वपक्ष की सिद्धि करे। जब वादी या प्रतिवादी कथा के समय अपने कर्तव्य निर्वहन में स्खलित हो जाते हैं तब वे निगृहित हो जाते हैं, पराजय को प्राप्त हो जाते हैं । नैयायिकों के अनुसार सामान्यतया पराजय के दो हेतु बनते हैं - विप्रतिपति एवं अप्रतिपति । विरुद्ध या कुत्सित प्रतिपति को विप्रतिपति कहते हैं। प्रमाण-मीमांसा 1 व्रात्य दर्शन १३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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