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का उल्लेख है। उन्होंने उभयासिद्ध दृष्टान्ताभास के दो अवान्तर भेद और किए हैं जिससे वस्तुतः न्यायप्रवेश के अनुसार छह साधर्म्य एवं छह वैधर्म्य दृष्टांताभास फलित होते हैं। प्रशस्तपाद ने भी इन्हीं बारह दृष्टांताभासों का उल्लेख किया है। जयन्तभट्ट ने दोनों प्रकार के उदाहरणाभासों के पांच-पांच भेदों का सोदाहरण उल्लेख किया है। जयन्तभट्ट ने प्रथम तीन भेदों को वस्तुदोषकृत तथा शेष दो को वचनदोषकृत माना है। धर्मकीर्ति ने दोनों प्रकार के उदाहरणाभासों के नौ-नौ भेद किए हैं। कुमारिल ने चार दृष्टान्तभासों का उल्लेख किया है। प्रभाकरमतानुयायी शालिकानाथ ने चार प्रकार के साधर्म्यदृष्टांताभास बताए हैं। इन्होंने वैधर्म्य दृष्टान्तभासों का उल्लेख ही नहीं किया है क्योंकि इनके अनुसार वैधर्म्य-दृष्टान्ताभास की कोई उपयोगिता ही नहीं है।
जैमिनी, शबर, योग और वेदान्त में दृष्टांतभासों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। सांख्य में भी केवल माठर ने दृष्टान्ताभासों की दस संख्या बताई है पर उनका निरूपण नहीं किया है।
ज्ञात तथ्यों के आधार पर जैन परंपरा में सर्वप्रथम दृष्टांताभास का उल्लेख सिद्धसेन के न्यायावतार में मिलता है। सिद्धसेन ने दृष्टांताभास की संख्या का निर्देश नहीं किया है। माणिक्यनंदी ने साधर्म्य, वैधर्म्य दृष्टांताभास के चार-चार भेद माने हैं। वादीदेवसूरि ने धर्मकीर्ति की तरह अठारह दृष्टांताभास स्वीकार किए हैं। धर्मकीर्ति एवं वादिदेवसूरि के दृष्टांताभासों के उदाहरणों में जहां साम्प्रदायिक अभिनिवेश झलकता है, वहीं हेमचन्द्राचार्य ने विशुद्ध तार्किक दृष्टि का ही अनुगमन किया है।
हेमचन्द्राचार्य ने आठ साधर्म्य के एवं आठ वैधर्म्य के इस प्रकार सोलह दृष्टांताभास स्वीकार किए हैं। उन्होंने अनन्वय एवं अव्यतिरेक को पृथक् दृष्टांताभास नहीं माना है, उनका मंतव्य है कि आठ साधर्म्य के दृष्टांताभास वस्तुतः अनन्वय रूप एवं आठ वैधर्म्य के दृष्टांताभास अव्यतिरेक रूप हैं अतः उनका पृथक् से उल्लेख करना उचित नहीं है। सोलह दृष्टांताभासों का समावेश इन दो में ही हो जाता है।
१३८ - व्रात्य दर्शन
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