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करता है।
___भासर्वज्ञ ने कथा के वाद आदि तीन भेद न मानकर प्रकारान्तर से उसके भेद किए हैं। भासर्वज्ञ के अनुसार कथा के दो प्रकार हैं-१. वीतराग कथा, २. विजिगीषु कथा।
वीतराग कथा को वाद कहा है तथा विजिगीषु कथा के जल्प और वितण्डा ये दो भेद किए हैं। वीतराग कथा दो वीतरागों के मध्य होती है और उनमें से एक पक्ष की स्थापना करता है तथा दूसरा उसका तर्क के द्वारा निराकरण करता है किंतु इस खण्डन-मण्डन में विजय की इच्छा का उद्देश्य नहीं रहता है अपितु इसका उद्देश्य तत्त्व-निश्चय करना ही होता है इसलिए ही कहा जाता है 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः'
जैन परम्परा के प्राचीन तार्किकों ने वीतराग व्यक्तियों के भी वाद होता है, यह स्वीकार किया है, यद्यपि वे विजिगीषु नहीं होते हैं फिर भी तत्त्व जिज्ञासा तो करते ही हैं। उनका वाद चतुरंग नहीं होता, क्योंकि वे असूयामुक्त होते हैं अतः पक्ष-प्रतिपक्ष लेकर प्रवृत्त होने पर भी उन्हें सभापति या सभ्यों के शासन की अपेक्षा नहीं रहती है
परार्थाधिगमस्तत्रानुद्भवद्रागगोचरः । जिगीषुगोचरश्चेति द्विधा शुद्धधियो विदुः ॥ सत्यवाग्भि विद्यातव्यः प्रथमस्तत्ववेदिभिः । यथाकथाञ्चिदित्येष चतुरङ्गो न सम्मतः ॥
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. २७७ ब्राह्मण, बौद्ध और जैन परंपरा के अनुसार कथा का मुख्य प्रयोजन तत्त्वज्ञान की प्राप्ति या प्राप्त तत्त्व ज्ञान की संरक्षा ही है। कथा के साध्य में किसी को मतभेद नहीं है किंतु साधन के प्रयोग में मतभेद परिलक्षित है। न्याय परम्परा कथा में छल जाति आदि के प्रयोग को मान्य करती है जबकि जैन एवं उत्तरवर्ती बौद्ध तार्किक छल, जाति आदि के प्रयोग को अनुचित मानते हैं। __ जैन परंपरा में जब छल आदि का प्रयोग मान्य ही नहीं है तब जल्प या वितण्डा को कथा माना ही नहीं जा सकता, अतः सभी जैन तार्किकों ने वाद को ही कथा माना है। जैन तार्किकों ने साध्य प्राप्ति में साधन की शुद्धता को अनिवार्य माना है।
व्रात्य दर्शन • १३५
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