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न होने पर वह कथा नहीं हो सकती। ‘सेयं चतुरङ्ग कथा, एकस्याप्यङ्गस्य वैकल्ये कथात्वानुपपतेः' (प्रमाण मीमांसा वृत्ति २/१/३०)
भाष्यकार वात्स्यायन के अनुसार वाद, जल्प एवं वितण्डा तीनों संयुक्त होकर कथा कहलाते हैं जबकि आचार्य हेमचन्द्र ने जल्प एवं वितण्डा को कथा नहीं माना है उनके अनुसार वाद ही कथा है। इस तथ्य पर उन्होंने प्रमाण मीमांसा में विस्तृत ऊहापोह किया है तथा निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है कि
'तस्माज्जल्पवितण्डानिराकरणेन वाद एवैकः कथाप्रथा' लभत इति स्थितम्'
(प्र. मी. २/१/३०/७१) चरक संहिता में कथा को सम्भाषा कहा गया है तथा वहां पर सम्भाषा के दो भेद निर्दिष्ट हैं-१. संधाय सम्भाषा २. विगृह्य सम्भाषा।
सौमनस्य से किया जाने वाला विचार विनिमय संधाय सम्भाषा तथा जय-पराजय के ध्येय से किया जाने वाला विचार विनिमय विगृह्य सम्भाषा कहलाता है। प्रथम सम्भाषा के अंतर्गत न्यायशास्त्रीय वाद का एवं द्वितीय में जल्प एवं वितण्डा का समावेश किया जा सकता है। जैन के अनुसार यथार्थ कथा तो संधाय संभाषा ही है। जैन तार्किक जल्प एवं वितण्डा को कथा मानते ही नहीं है। अतएव जैन परम्परा में वाद शब्द का वही अर्थ है जो चरक में संधाय सम्भाषा और न्याय परंपरा में वाद कथा का है। प्राचीन बौद्ध तार्किक वाद, जल्प एवं वितण्डा तीनों को कथा का भेद मानते थे किंतु उत्तरवर्ती बौद्ध तार्किकों ने जैन तार्किकों के समान ही जल्प और वितण्डा को कथा के क्षेत्र से पृथक् कर 'वाद' को ही कथा रूप में मान्य किया अतः उत्तरवर्ती बौद्ध मान्यता और जैन परंपरा के मध्य 'वाद' शब्द के अर्थ में कोई अन्तर नहीं रहा, यह स्पष्ट ही है।
जैन परम्परा के अनुसार चतुरङ्गवाद के अधिकारी विजिगीषु है। न्याय-वैद्यक परंपरा सम्मत विजिगीषु से जैन विजिगीषु का बहुत बड़ा अंतर है। न्याय-वैद्यक परंपरा के अनुसार न्याय, अन्याय, छल, जाति आदि किसी का भी प्रयोग करके जो वादी को परास्त कर दे, वही विजिगीषु है जबकि जैन परंपरा के अनुसार विजिगीषु वह है जो प्रमाण एवं तर्क के द्वारा अपने पक्ष की सिद्धि करे उसके लिए छल जाति आदि का प्रयोग न करे। इस दृष्टि से जैन परंपरा सम्मत विजिगीषु न्याय-वैद्यक परंपरा सम्मत तत्त्वबुभुत्सु की कोटि में आ जाता है क्योंकि वह विजिगीषु होने पर भी अपनी विजय के लिए अशुद्ध साधनों का उपयोग नहीं
१३४ . व्रात्य दर्शन
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