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१४. तत्त्वसंरक्षण का साधन वाद
तत्त्व की जिज्ञासा से किसी विषय पर जो चर्चा की जाती है, उसको वाद कहा जाता है। 'तत्त्वसंरक्षणार्थप्राश्निकादिसमक्षं साधनदूषणवदनं वादः' वाद का उद्देश्य तत्त्वनिर्णय होता है। इसमें पक्ष विपक्ष की बौद्धिक श्रेष्ठता या दुर्बलता का प्रतिपादन मुख्य नहीं होता किंतु सम्बद्ध वस्तु को, तत्त्व को स्पष्टता से जानने की जिज्ञासा होती है। वाद कथा में वादी प्रतिवादी ज्ञान-पिपासु होते हैं, मात्र जय पराजय के इच्छुक विजिगीषु नहीं होते हैं।
गौतम ने वाद की कसौटियों का निर्धारण किया है
१. वाद में स्वपक्ष सिद्धि एवं परपक्ष निराकरण में प्रमाण एवं युक्ति का ही प्रयोग किया जाए छल, जाति आदि असद् उपाय का प्रयोग वाद में वर्जित
२. सिद्धान्त अविरुद्ध चर्चा ही वाद में हो सकती है। ३. पंचावयवयुक्त अनुमान का प्रयोग वाद में अपेक्षित है।
'प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताऽविरुद्धः
पंचावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः' वाद का उद्देश्य विचार-विनिमय के द्वारा तत्त्वज्ञान करना है अतः वादी प्रतिवादी इसे एकान्त में भी कर सकते हैं। इसके लिए चतुरंग सभा की आवश्यकता नहीं है।
__ आचार्य हेमचन्द्र ने वाद का उद्देश्य तत्त्व संरक्षण ही प्रस्तुत किया है किंतु उनके मंतव्य के अनुसार वाद प्राश्निक आदि के समक्ष ही होता है। वाद के समय वादी, प्रतिवादी, सभापति एवं सभ्य ये चारों उपस्थित होने चाहिए, क्योंकि इन्होंने वादमात्र को ही कथा कहा है तथा कथा चतुरंग होती है। एक अवयव के भी
व्रात्य दर्शन , १३३
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