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________________ उत्पन्नास्तिक सत् का सम्बन्ध मात्र वर्तमान काल से है। वह अतीत एवं अनागत को स्वीकार करता है। अतः यह नास्ति रूप है। वर्तमान को स्वीकार करता है अतः अस्ति है। इससे सप्तभंगी का अवक्तव्य नाम का भंग फलित होता है। पर्यायनयानुगामी होने से इसकी दृष्टि भेदप्रधान है। सम्पूर्ण व्यवहार की कारणभूत वस्तु निरन्तर उत्पाद-विनाशशील है। कुछ भी स्थितिशील नहीं है, यह उत्पन्नास्तिक का कथन है। इसकी मान्यता उत्पत्ति में ही है। ‘उत्पन्नास्तिकमुत्पन्नेऽस्तिमतिः' अनुत्पन्न स्थिति को यह स्वीकार ही नहीं करता। पर्यायास्तिक सत् विनाश को स्वीकार करता है। जो उत्पन्न हुए हैं वे अवश्य ही विनश्वर स्वभाव वाले हैं। जितना उत्पाद है उतना ही विनाश । 'विनाशेऽस्तिमतिपर्यायास्तिकम्' कुछ मानते हैं कि पर्यायास्तिक उत्पद्यमान पर्याय को ही मानता है। 'उत्पद्यमानाः पर्यायाःपर्यायास्तिमुच्यते' इन दोनों मतों का समन्वय करने से फलित होता है कि पर्यायास्तिक नय भूत एवं अनागत को स्वीकार करता है तथा वर्तमान का निषेध करता है अतः यह अस्ति-नास्ति रूप है। भूत भविष्य की अपेक्षा अस्ति वर्तमान की अपेक्षा नास्ति है। इससे भी अवक्तव्य भंग का कथन होता है। क्योंकि अस्ति-नास्ति को एक-साथ नहीं कहा जा सकता। संक्षेप में द्रव्यास्तिक से परम संग्रह का विषय भूत सत् द्रव्य और मातृकापदास्तिक से सत् द्रव्य के व्यवहाराश्रित धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य का विभाग उनके भेद-प्रभेद अभिप्रेत है। प्रत्येक क्षण में नवनवोत्पन्न वस्तु का रूप उत्पन्नास्तिक और प्रत्येक क्षण में होने वाला विनाश या भेद पर्यायास्तिक से अभिप्रेत है। प्रत्येक क्षण में नवनवोत्पन्न वस्तु का रूप उत्पन्नास्तिक और प्रत्येक क्षण में होने वाला विनाश या भेद पर्यायास्तिक से अभिप्रेत है। उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य इस त्रिपदी का समावेश चतुर्धा विभक्त सत् में हो जाता है। जैन दर्शन वस्तुवादी दर्शन है। वह जगत् की वास्तविक सत्ता स्वीकार करता है। सूक्ष्म एवं स्थूल दोनों ही जगत् का तात्विक अस्तित्व है। वस्तुवाद के अनुसार सत् को बाह्य, आभ्यन्तर, पारमार्थिक, व्यावहारिक, परिकल्पित, परतन्त्र, परिनिष्पन्न आदि भेदों में विभक्त नहीं किया जा सकता। सत्य, सत्य ही है, उसमें विभाग नहीं होता। प्रमाण में अवभासित होने वाले सारे तत्त्व वास्तविक है। इन्द्रिय, मन एवं अतीन्द्रिय ज्ञान इन सब साधनों से ज्ञात होने वाला प्रमेय वास्तविक है। इन साधनों से प्राप्त ज्ञान में स्पष्टता-अस्पष्टता, न्यूनाधिकता हो सकती है किन्तु इनसे ज्ञात पदार्थों का अपलाप नहीं किया जा सकता अर्थात् सत् पारमार्थिक, सांवृतिक के भेदों में विभक्त नहीं किया जा सकता। द्रव्य एवं पर्याय, नित्यता एवं अनित्यता व्रात्य दर्शन - १३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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