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________________ करते हुए उन्होंने कहा 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' ऐसी परिभाषा होने से जैन दर्शन का सत् अन्य दर्शनों से स्वतः ही विलक्षण हो गया तथा जैन दृष्टि से सर्वथा अनुकूल सिद्ध हुआ। वाचक ने सत्य को नित्य कहा किन्तु नित्य की स्वमन्तव्य पोषक परिभाषा करके उसे एकान्त के आग्रह से मुक्त रखा। 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' उत्पाद और व्यय के होते हुए भी जिसका सद्रूप समाप्त नहीं होता यही सत् की नित्यता है। पर्यायों के बदल जाने पर भी द्रव्य की सत्ता समाप्त नहीं होती। वह निरन्तर-पूर्व-उत्तर पर्यायों में अनुस्यूत होती रहती है। उमास्वाति ने चतुर्विध सत् की कल्पना की है। सत् को उन्होंने चार भागों में विभक्त किया है-१. द्रव्यास्तिक, २. मातृकापदास्तिक, ३. उत्पन्नास्तिक, ४. पर्यायास्तिक। सत् का इस प्रकार का विभाजन अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है। यह उनकी मौलिक अवधारणा है। उमास्वाति ने इस चतुर्विध सत् की विशेष व्याख्या नहीं की है। ज्ञान की स्थूलता एवं सूक्ष्मता के आधार पर सत् के चार पदों का निरूपण किया। टीकाकार सिद्धसेनगणी ने इनकी कुछ स्पष्टता की है। प्रथम दो सत् (द्रव्याश्रित) द्रव्यनयाश्रित है तथा अंतिम दो भेद पर्यायनयाश्रित है। सत् के चार विभागों के अन्तर्गत आचार्य उमास्वाति ने सत् की सम्पूर्ण अवधारणा को समाहित करने का प्रयत्न किया है। द्रव्यास्तिक सत् का कथन द्रव्य के आधार पर है, मातृकापदास्तिक का कथन द्रव्य के विभाग के आधार पर, उत्पन्नास्तिक का व्याकरण तात्कालिक वर्तमान पर्याय के आधार पर है तथा पर्यायास्तिक का कथन भूत एवं भावी पर्याय के आधार पर हुआ है ऐसा प्रतीत होता है। द्रव्यास्तिक के अनुसार- 'असन्नाम नास्त्येव द्रव्यास्तिकस्य' असत् कुछ होता ही नहीं वह सत् को ही स्वीकार करता है। 'सर्ववस्तु सल्लक्षणत्त्वादसत्प्रतिषेधेन सर्वसंग्रादेशो द्रव्यास्तिकम्।' द्रव्यास्तिक सत् संग्रह नय के अभिप्राय वाला है। ‘सर्वमेकं सदविशेषात्' इस सत् के द्वारा सप्तभंगी का प्रथम भंग ‘स्यात् अस्ति' फलित होता है। मातृकापदास्तिक सत् के द्वारा द्रव्यों का विभाग होने से अस्तित्व एवं नास्तित्व धर्म प्रकट होता है। मातृकापद व्यवहारनयानुसारी है द्रव्यास्तिक के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों को सत् कह देने मात्र से वह व्यवहार उपयोगी नहीं हो सकता। व्यवहार विभाग के बिना नहीं हो सकता। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय का द्रव्यत्व तुल्य होने पर भी वे परस्पर भिन्न स्वभाव वाले हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय नहीं हो सकती यही मातृकापदास्तिक का कथन है। विभक्ति का निमित्त होने के कारण मातृकापद, व्यवहार उपयोगी है____ 'स्थूलकतिपयव्यवहारयोग्यविशेषप्रधानमातृकापदास्तिकम्' । १३० . व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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