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है। सामान्य एवं विशेष का परस्पर अविनाभाव है। वे एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते अर्थात एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व ही नहीं हो सकता। इसका तात्पर्य हुआ पर्याय रहित द्रव्य एवं द्रव्य रहित पर्याय सत्य नहीं है।
द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्याया द्रव्यवर्जिताः।
क्व कदा केन किंरूपा दृष्टा मानेन केन वा ॥ जैन दर्शन के मन्तव्यानुसार वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। वस्तु में एक ही काल में अनन्त विरोधी धर्म युगपत् रहते हैं। एक ही वस्तु एक ही समय में उत्पत्तिशील, विनश्वर एवं ध्रुवता युक्त है। उत्पाद-व्यय एवं ध्रौव्ययुक्त त्रयात्मक वस्तु ही अर्थ क्रिया करने में समर्थ है। एकान्त द्रव्यवाद, एकान्त पर्यायवाद एवं निरपेक्ष द्रव्य एवं पर्यायवाद के आधार पर वस्तु की व्यवस्था नहीं हो सकती। अर्थक्रियाकारित्व वस्तु का लक्षण है एवं वह लक्षण एकान्त नित्य एवं अनित्य तथा निरपेक्ष नित्य एवं अनित्य पदार्थ में घटित ही नहीं हो सकता। अर्थक्रियाकारित्व द्रव्यपर्यायात्मक उभयस्वभाववाली वस्तु में घटित हो सकता है अतः उभयात्मक वस्तु की ही वास्तविक सत्ता है।
जैन दर्शन में सत्, तत्त्व, तत्त्वार्थ एवं पदार्थ इन शब्दों का प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में होता रहा है। जो सत् रूप पदार्थ हैं, वे ही द्रव्य हैं, तात्त्विक हैं। दर्शन शास्त्र में सर्वप्रथम स्वयं के दर्शन से सम्मत तत्त्वों का निर्देश प्रारम्भ में कर दिया जाता है। वैशेषिक सूत्र में द्रव्य आदि छः पदार्थ स्वीकार किये गये हैं। उनमें से द्रव्य गुण एवं कर्म इन तीनों को 'सत्' इस पारिभाषिक संज्ञा से अभिहित किया गया है। न्यायसूत्र में प्रमाण आदि सोलह तत्त्वों को भाष्यकार ने सत् शब्द से व्यवहत किया है। वेदान्त दर्शन में ब्रह्म ही एकमात्र सत् है। जैन आगमों में संक्षेप में जीव एवं अजीव ये दो तत्त्व तथा विस्तार में नवतत्त्वों का उल्लेख प्राप्त है।
जैनधर्म के प्रमुख आचार्य तत्त्वव्याख्याता वाचकमुख्य ने सत् का बीज जो भगवान महावीर की वाणी में था, उसका पल्लवन किया। आगमों में तिर्यक् और ऊर्ध्व दोनों प्रकार के पर्यायों का आधार द्रव्य को माना है। जो सर्वद्रव्यों का अविशेष है। 'अविसेसिए दब्वे विसेसिए जीव दव्वे अजीव दव्वे' किन्तु आगमों में द्रव्य की सत् संज्ञा नहीं थी। जब अन्य दर्शनों में 'सत्' इस संज्ञा का समावेश हुआ तब जैन दार्शनिकों के समक्ष भी 'सत्' किसे कहा जाए यह प्रश्न उपस्थित हुआ।
उमास्वाति ने कहा द्रव्य ही सत् है। ‘सद् द्रव्यलक्षणम्' सत् को परिभाषित
व्रात्य दर्शन • १२६
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