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________________ है अतः वह 'प्रत्यात्म वेदनीय' है । संवृति एवं परमार्थ सद् को व्याख्यायित करते हुये कहा गया यत्र भिन्ने न तद् बुद्धिरन्यापोहे धिया च तत् । घटाम्बुवत् संवृति सत् परमार्थसदन्यथा ॥ जैन दर्शन में सत् का स्वरूप भारतीय दर्शन जगत् में सत् के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न मतभेद हैं । वेदान्त दर्शन सत् (ब्रह्म) को एक एवं कूटस्थ नित्य मानता है । बौद्ध के अनुसार सत् क्षणिक है, मात्र उत्पाद - विनाशशील है, नित्यतायुक्त किसी पदार्थ का जगत् में अस्तित्व ही नहीं है। सांख्यदर्शन चेतन तत्त्व रूप सत् पदार्थ को कूटस्थ नित्य एवं प्रकृति रूप सत् को परिणामी नित्य मानता है। नैयायिक-वैशेषिक दर्शन अनेक पदार्थों में से आत्मा, परमाणु काल आदि सत् तत्त्वों को कूटस्थ नित्य मानता है तथा घट, पट आदि कुछ पदार्थों को मात्र उत्पाद एवं व्यय युक्त ही मानता है नित्य रूप नहीं मानता है । जैन दर्शन के अनुसार सत् / वस्तु नित्यानित्यात्मक उभय रूप है। वस्तु केवल कूटस्थ भी नहीं है और केवल निरन्वयविनाशी भी नहीं है। सांख्य दर्शन की तरह उसका एक तत्त्व सर्वथा नित्य एवं दूसरा तत्त्व परिणामि नित्य भी नहीं है । न्यायवैशेषिक की भांति आत्मा आदि कुछ पदार्थ नित्य एवं घट, पट आदि कुछ अनित्य है ऐसा भी नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार चेतन और जड़, अमूर्त और मूर्त, सूक्ष्म और स्थूल सभी सत् पदार्थ उत्पाद व्यय एवं ध्रौव्ययुक्त हैं। सम्पूर्ण वस्तु जगत् त्रयात्मक है । वाचक उमास्वाति ने कहा भी है 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' अद्वैत वेदान्त ने द्रव्य को पारमार्थिक सत्य मानकर पर्याय को काल्पनिक कहकर उसके अस्तित्व को ही नकार दिया। बौद्धों ने पर्याय को पारमार्थिक मानकर द्रव्य को काल्पनिक मान लिया । जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य और पर्याय दोनों पारमार्थिक सत्य है । हमारा ज्ञान जब संश्लेषणात्मक होता है तब द्रव्य उपस्थित रहता है और पर्याय गौण हो जाता है और जब ज्ञान विश्लेषणात्मक होता है तब पर्याय प्रधान एवं द्रव्य गौण हो जाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने इस तथ्य को अभिव्यक्त करते हुए कहा है 'अपर्ययं वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच्च विविच्यमानं' जैन दर्शन के अनुसार वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक अर्थात् सामान्य- विशेषात्मक १२८ • व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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