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की सिद्धि होती है। 'वातात् (समूहात्) च्युतः' इस विग्रह में 'दिगादिभ्यो यत्' (पाणिनी अष्टाध्यायी ४/३/५४) से 'यत्' प्रत्यय तथा 'यस्येति च' (पा. अ. ६/४/१४८) से त में स्थित 'अ' का लोप होने से 'व्रात्य' शब्द निष्पन्न होता है। व्रात शब्द से निष्पन्न 'व्रात्य' का अर्थ होता है-समूह से च्युत व्यक्ति। व्रात्य की इस व्युत्पत्ति से इसका अर्थ मुनि हो जाता है। मुनि गृहस्थ जीवन का त्याग कर देता है। एक प्रकार से वह सांसारिक समूह से च्युत हो जाता है अतः गृहत्यागी संत 'व्रात्य' है। जैन परम्परा में मुनि धर्म को उत्कृष्टता प्राप्त है। जैन संस्कृति को श्रमण संस्कृति कहा जाता है। भगवान महावीर के लिए आगमों में स्थान-स्थान पर श्रमण विशेषण प्रयुक्त हुआ है। श्रमण शब्द जैसे मुनि का वाचक है वैसे ही व्रात्य भी मुनि का वाचक हो जाता है अतः जैन दर्शन को व्रात्य दर्शन कहा जा सकता है।
व्रत शब्द से भाव एवं कर्म अर्थ में 'व्रात्य' शब्द निष्पन्न होता है। 'व्रतस्य भावः कर्म वा' इस विग्रह में 'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च' (पा. अ. ५/१/१२४) से 'ष्यम्' प्रत्यय, यस्येति च' (पा. अ. ७२/१/६) से पूर्व अकार की वृद्धि होने से 'व्रात्य' शब्द निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ है-व्रत का भाव या व्रत का कर्म। जिसका तात्पर्य है-जो व्रतों की अनुपालना करता है वह व्रात्य है। जैन संस्कृति का व्रत के साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध है। जैन संस्कृति अर्थात् व्रात्य संस्कृति। जैन दर्शन अर्थात् व्रात्यदर्शन । व्रात एवं व्रत दोनों ही शब्दों से निष्पन्न व्रात्य शब्द जैन विचारधारा का संवाहक है।
प्रस्तुत 'व्रात्य दर्शन' नामक पुस्तक में जैनदर्शन से सम्बन्धित कुछ लेखों का संग्रह किया गया है। इन निबन्धों का लेखन राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों आदि विभिन्न प्रसंगों पर किया गया था। 'आर्हती दृष्टि' नामक पुस्तक में निबद्ध लेखों की तरह ही इस 'व्रात्य दर्शन' पुस्तक में भी जैनदर्शन से सम्बन्धित विविध विषयों के कतिपय लेखों का समाकलन हुआ है। विषय से सम्बन्धित होने के कारण अंग्रेजी भाषा में लिखित चार लेखों को भी प्रस्तुत पुस्तक में संयोजित किया गया है। स्वयं की ज्ञानाराधना के लिए निबद्ध प्रस्तुत निबन्ध, किसी की भी ज्ञानाराधना के हेतु बने, इसी में मेरे श्रम की सार्थकता है।
परम श्रद्धास्पद पूज्य गुरुदेवश्री तुलसी की दिव्य सन्निधि के प्रति मैं श्रद्धाप्रणत हूं। उस अलौकिक व्यक्तित्व से आलोक रश्मियां प्राप्त होती रहती हैं।
परम श्रद्धास्पद युगप्रधान आचार्यश्री महाप्रज्ञ की वात्सल्यमयी अनुशासना एवं प्रेरक मार्गदर्शन मेरे जीवन में ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की आराधना के अलभ्य
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