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जगत् का समस्त व्यवहार आरोप या उपचार से संचालित है । वस्तु में अवस्तु के आरोप को अध्यारोप कहते हैं- जैसे रस्सी में सर्प का आरोप । इस दृष्टांत से ज्ञात होता है कि रज्जु में जो सर्प का आरोप किया है वह मिथ्या है क्योंकि जैसे ही उस भ्रान्ति का निराकरण होगा रज्जु का रज्जुत्व ज्ञाता के सम्मुख उपस्थित हो जायेगा। यहां सर्प की भ्रान्ति का ज्ञान परिकल्पित है । रज्जु की सत्ता परतन्त्र शब्द से अभिहित की जाती है तथा वह वस्तु जिससे रज्जु बनकर तैयार हुई है वह परिनिष्पन्न सत्ता कहलाती है ।
परिकल्पित सत् कल्पनामात्र है परतन्त्र सत्ता बाह्य वस्तु सापेक्ष है । परतन्त्र शब्द का ही अर्थ है दूसरे के उपर अवलम्बित होने वाला । इसका तात्पर्य यह है कि परतन्त्र सत्ता स्वयं उत्पन्न नहीं होती अपितु हेतु- प्रत्यय से उत्पन्न होती है। परिकल्पित सत्ता में ग्राह्य-ग्राहक भाव का स्पष्ट आभास होता है किन्तु यह भेद की कल्पना नितान्त भ्रान्त है । ग्राह्य एवं ग्राहक भाव दोनों ही परिकल्पित है क्योंकि विज्ञान तो एकाकार है उसमें न तो ग्राहकत्व और न ग्राह्यत्व | अविद्या के कारण ऐसी परिकल्पना होती रहती है। जब तक यह संसार है तब तक यह द्विविध कल्पना चलती रहती है जिस समय ये दोनों भाव निवृत्त हो जाते हैं उस समय परिनिष्पन्न सत्ता की अवस्था प्राप्त हो जाती है । परतन्त्र सदा परिकल्पित लक्षण के साथ मिश्रित होकर हमारे सामने उपस्थित होता है । जिस समय उनका मिश्रण समाप्त हो जाता है और वह अपने विशुद्ध रूप में प्रतीत होने लगता है वही उसकी परिनिष्पन्नावस्था है ।
योगाचार मत में सत् / सत्य त्रिद्या विभक्त है । जैसा कि मैत्रेयनाथ ने कहा भी है
कल्पितः परतन्त्रश्च परिनिष्पन्न एव च । अर्थादभूतकल्पाच्च द्वयाभावाच्च कथ्यते ॥
माध्यमिक (शून्याद्वैतवादी )
माध्यमिक दर्शन की विचारधारा के अनुसार शून्य ही परमार्थ सत् है । माध्यमिक मत के प्रसिद्ध आचार्य नागार्जुन के अनुसार यह जगत् मायिक है । स्वप्न में दृष्ट पदार्थों की सत्ता के समान जगत् के समग्र पदार्थों की सत्ता काल्पनिक है । विश्व व्यावहारिक रूप से सत्य है, परमार्थ रूप से वह शून्य है । समग्र जगत् स्वभाव- शून्य है। यहां शून्य का अर्थ अभाव नहीं है किन्तु शून्य का अर्थ है तत्त्व की अवाच्यता । शून्य ( तत्त्व) सत्, असत् उभय एवं अनुभय रूप नहीं है वह
१२६ • व्रात्य दर्शन
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