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करने पर नाम के चार स्कन्ध बन जाते हैं तथा 'रूप' जगत् के जड़ पदार्थों का सामान्य अधिवचन है, रूप से रूप नामक स्कन्ध का अवबोध हो रहा है। इस प्रकार 'नाम रूप' जगत् का ही विस्तृत विभाजन करने से ‘पञ्चस्कन्ध' की अवधारणा सम्पुष्ट हो जाती है। संक्षेप में वैभाषिक मत के अनुसार सत् बाह्य एवं आभ्यन्तर उभयरूप है एवं वह क्षणिक है।
जैसा कि कहा भी गया है कि
'तत्र ते सर्वास्तिवादिनो बाह्यमान्तरं च वस्तु अभ्युपगच्छति भूतं च भौतिक च चित्तं चैत्तं च'
बाह्य एवं आभ्यन्तर जगत् को वास्तविक सत् मानने के साथ ही इस दर्शन का यह मुख्य सिद्धान्त है कि बाह्यार्थ का प्रत्यक्ष हो सकता है।
सौत्रान्तिक विचारधारा भी बाह्य एवं आभ्यन्तर जगत् को वास्तविक/सत् रूप स्वीकार करती है। इनके अनुसार केवल चित्त (विज्ञान) की ही वास्तविक सत्ता नहीं है अपितु बाह्य पदार्थों की भी सत्ता निर्विवाद है। वैभाषिक की तरह ही यह बाह्य जगत् को तो वास्तविक मानता है किन्तु उसका ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं हो सकता है वह अनुमानगम्य है यह सौत्रान्तिकों का अभिमत है। उनका मन्तव्य है कि बाह्य वस्तु का हमें प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थ क्षणिक हैं अतः किसी भी वस्तु के स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान संभव नहीं है। जिस क्षण में किसी वस्तु के साथ हमारी इन्द्रियों का सम्पर्क होता है, उस क्षण में वह वस्तु प्रथम क्षण में उत्पन्न होकर अतीत के गर्भ में चली जाती है। केवल तज्जन्यसंवेदन शेष रहता है। प्रत्यक्ष होते ही पदार्थों के नील, पीत आदि चित्र चित्त के पट पर खींच जाते हैं। जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्ब को देखकर बिम्ब की सत्ता का अनुमान किया जाता है वैसे ही मन पर जो प्रतिबिम्ब उत्पन्न होता है उसी को वह देखता है और उसके द्वारा वह उसके उत्पादक बाहरी पदार्थों का अनुमान करता है। सर्वसिद्धान्तसंग्रह में इस तथ्य को अभिव्यक्त करते हुए कहा गया है कि
नीलपीतादिभिश्चित्रैर्बुद्याकारैरिहान्तरैः ।
सौत्रान्तिकमते नित्यं बाह्यार्थस्त्वनुमीयते ॥ निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि इस विचारधारा के अनुसार बाह्य जगत् का अस्तित्व वास्तविक है एवं उसका ज्ञान अनुमान के द्वारा होता है।
१२४ . व्रात्य दर्शन
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