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________________ है। दूसरे क्षण का पदार्थ प्रथम क्षण के पदार्थ से सर्वथा भिन्न हो जाता है। अविद्या/अज्ञान के कारण पदार्थों में समानता दिखाई देती है वस्तुतः वह होती नहीं है । संसार का प्रत्येक जड़-चेतन पदार्थ प्रतिक्षण परिवर्तनशील है । वस्तु का प्रत्येक क्षण में स्वाभाविक नाश होता है। क्षणभंग के कारण ही बौद्ध दर्शन विनाश को निर्हेतुक मानता है । प्रत्येक क्षण में विनाश स्वयं होता है । विनाश के लिए किसी बाह्य हेतु की आवश्यकता नहीं होती है। तर्कभाषा में कहा - ' नश्वरमेव तद्वस्तु स्वहेतोरूपजात-मङ्गीकर्त्तव्यम्, तस्मादुत्पन्नमात्रमेव विनश्यति, उत्पत्तिक्षण एव सत्त्वात्' । बौद्धदर्शन के अनुसार जो सत् रूप है, वह एकान्त रूप से क्षणिक है यथा घटः । सब अस्तित्ववान् पदार्थ क्षणिक हैं । अक्षणिक/ नित्य पदार्थ की कल्पना शशशृंगवत् निरर्थक है । नित्य पदार्थ क्रम अथवा युगपत् दोनों ही प्रकार से अर्थक्रिया नहीं कर सकता । जिसमें अर्थक्रिया नहीं होती वह सत् रूप भी नहीं हो सकता । सत् वही है जो अर्थ क्रिया करे । बौद्ध दर्शन के अनुसार क्षणिक पदार्थ ही अर्थक्रिया करने में समर्थ है अतः एकमात्र क्षणिक पदार्थ / वस्तु ही सत् रूप है । वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार एवं माध्यमिक ये चार बौद्धदर्शन के प्रमुख सम्प्रदाय है । बौद्ध दर्शन में इन दार्शनिक शाखाओं की उत्पत्ति 'सत्ता' के प्रश्न को लेकर ही हुई है। बौद्ध के अनुसार सम्पूर्ण प्रमेय क्षणिक है, यह तो सर्वमान्य सिद्धान्त है किन्तु प्रमेय के स्वरूप के सम्बन्ध में इन दार्शनिक विचारधाराओं में गंभीर भिन्नता है। सत् के विवेचन के संदर्भ में इन चारों ही विचारधाराओं के संक्षिप्त मंतव्य को प्रस्तुत प्रकरण में अभिव्यक्त किया जायेगा । वैभाषिक मत के अनुसार इस नानात्मक जगत् की वास्तविक सत्ता है । बाह्य तथा आभ्यन्तर समस्त धर्मों का स्वतंत्र अस्तित्व है । बाह्य पदार्थ की स्वतंत्र सत्ता का अनुभव हमें प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा प्रतिक्षण हो रहा है । उदाहरणार्थ चक्षु इन्द्रिय के द्वारा घट नामक पदार्थ का ज्ञान हुआ । घटज्ञान प्राप्त करके हम घटनामक पदार्थ को प्राप्त करते हैं उस घट पदार्थ से जल आहरण आदि अर्थक्रिया होती है । अर्थक्रियाकारिता के कारण यह घट यथार्थ है और इस यथार्थता का ज्ञान हमें इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष से हो रहा है अतः जगत् की स्वतंत्र सत्ता प्रत्यक्षगम्य है। वैभाषिक मत के अनुसार बाह्य एवं आभ्यन्तर के भेद से जगत् भी दो प्रकार का है। दोनों प्रकार के जगत् की सत्ता परस्पर निरपेक्ष है । स्थूल रूप से यह जगत् 'नामरूपात्मक' है। 'नाम' मन तथा मानसिक प्रवृत्तियों की साधारण संज्ञा है, जिन्हें वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञानरूप से विभक्त व्रात्य दर्शन १२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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