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________________ में सर्प का भ्रमज्ञान होता है। ठीक इसी प्रकार ब्रह्म अनेक जीवों के रूप में उत्पन्न भी नहीं होता है फिर भी अनेक जीवों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। इस अनेकता की प्रतीति माया के कारण है। जीवों की अनेकता मिथ्या है। यदि जीव का अज्ञान दूर हो जाये तो उसे ब्रह्मभाव की अनुभूति हो सकती है। शंकर के मत को 'केवलाद्वैतवाद' भी कहा जाता है क्योंकि वे केवल एक अद्वैत ब्रह्म आत्मा को ही सत्य मानते हैं, शेष समस्त पदार्थों को मायारूप अथवा मिथ्या मानते हैं। जगत् को मिथ्या मानने के कारण इनके मत को मायावाद भी कहा गया है, जिसका दूसरा नाम विवर्तवाद भी है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो गया है कि शंकर के अनुसार ब्रह्म की ही पारमार्थिक सत्ता है। शेष पदार्थ व्यावहारिक या प्रतिभासित सत् हैं। वेदान्त दर्शन में सत्ता तीन प्रकार की मानी गयी है १. पारमार्थिक, २. व्यावहारिक एवं ३. प्रातिभासिक। १. पारमार्थिक सत्-वेदान्त के अनुसार एक, सर्वव्यापक, अपरिवर्तनशील, कूटस्थ, नित्य ब्रह्म ही पारमार्थिक सत् है। २. व्यावहारिक सत्-दृश्यमान चराचर जगत् ब्रह्म का विवर्तमात्र है। इसकी पारमार्थिक सत्ता नहीं है। यह व्यावहारिक सत् है। जगत् में अनुभव में आने वाले घट पट आदि पदार्थों की व्यावहारिक सत्ता है। ३. प्रातिभासिक सत्-स्वप्न आदि में प्रतिभासित होने वाला पदार्थ पारमार्थिक एवं व्यावहारिक सत् भी नहीं है। उनका प्रतिभास मात्र होता है अतः वे प्रातिभासिक सत् है। वेदान्त प्रत्ययवादी दर्शन है। इसकी अवधारणा के अनुसार जो दृश्य जगत् है, वह वास्तविक नहीं है। पारमार्थिक सत्य इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है तथा उसको वाणी के द्वारा अभिव्यक्त भी नहीं किया जा सकता। ‘यतो वाचा निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह' ____ अतीन्द्रिय चेतना के द्वारा गृहीत ब्रह्म तत्त्व ही वास्तविक है स्थूल जगत् की पारमार्थिक सत्ता नहीं है। बौद्ध दर्शन में सत् की अवधारणा बौद्ध दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण चराचर जगत् क्षणिक है। क्षणभङ्गवाद बौद्ध दर्शन का मूल सिद्धान्त है। संसार के समस्त पदार्थ क्षणिक हैं । वे प्रतिक्षण परिवर्तित होते रहते हैं। पहले क्षण के पदार्थ का दूसरे क्षण में निरन्वय विनाश हो जाता १२२ . व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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