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________________ वेदान्त दर्शन में सत् का स्वरूप सभी भारतीय दर्शनों में सत् के स्वरूप, संख्या आदि के विषय में विमर्श हुआ है। यद्यपि उनकी ‘सत' के स्वरूप एवं संख्या सम्बन्धी अवधारणा में मतैक्य नहीं है। सभी चिन्तकों ने स्वमन्तव्य पोषक 'सत्' की विचारणा प्रस्तुत की है। वेदान्त दर्शन से हमारा तात्पर्य शंकर अद्वैत वेदान्त से है। इस दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण विश्व ब्रह्ममय है। संसार में नानात्व नहीं है। एकत्व ही यथार्थ है। 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन' ब्रह्म की ही वास्तविक सत्ता है। जगत् की सत्ता व्यावहारिक है। 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः' ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म स्वरूप ही है, ब्रह्म से भिन्न उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, यह वेदान्त दर्शन का मुख्य सिद्धान्त है। इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म परमार्थ सत्ता है। यथार्थ परम सत् ब्रह्म ही है। ब्रह्म मूल तत्त्व है। ब्रह्म को व्याख्यायित करते हुये कहा गया जिससे इन सब भूतों की उत्पत्ति हुई है और उत्पन्न होने के बाद जिससे ये जीवन धारण करते हैं तथा मृत्यु के समय जिसमें समाहित हो जाते हैं वही ब्रह्म है। संसार के पदार्थ सदा अपनी आकृतियां बदलते रहते हैं अतः परमार्थ रूप से संसार को सत् नहीं कहा जा सकता। इस परिवर्तनशील पदार्थों से युक्त नामरूपात्मक विश्व की पृष्ठभूमि में ऐसी सत्ता है जो स्थिर है, सर्वदा एवं सर्वथा अपरिवर्तनशील है वही ब्रह्म है एवं परमार्थ सत् है। शंकर के अनुसार ब्रह्म विशुद्ध, सब गुणों से मुक्त निरुपाधिक सत्ता है, जिसे निर्गुण ब्रह्म भी कहा जाता है। वह अव्याख्येय, अनिर्वचनीय यथार्थ सत्ता है। ब्रह्म एक, अनन्त एवं कूटस्थ नित्य है। ब्रह्म विशुद्ध है, नितान्त आत्मस्वरूप, एक एवं अद्वितीय है अर्थात् उस जैसी कोई दूसरी सत्ता नहीं है। वेदान्त दर्शन के अनुसार ब्रह्म ही मौलिक तत्त्व है। संसार में दृष्टिगोचर होने वाली अनेक आत्माएं तथा अन्य पदार्थ उस एक मौलिक ब्रह्म रूप आत्मा के कारण ही है उनका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। प्रत्येक जीवात्मा ब्रह्म का ही अंश है। अविद्या के नाश होने पर पुनः वे ब्रह्म में ही विलीन हो जाती हैं। शंकराचार्य का कथन है कि मूलरूप से ब्रह्म एक होने पर भी अनादि अविद्या के कारण वह अनेक जड़ एवं चेतन पदार्थों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जिस प्रकार विपर्यय ज्ञान के कारण रस्सी में सर्प की प्रतीति होती है। रस्सी सर्प रूप में न तो उत्पन्न होती है और न ही वह सर्प को उत्पन्न करती है फिर भी रज्जु व्रात्य दर्शन . १२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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