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________________ 1 प्रमाण नहीं है, प्रमाण का अंशमात्र है । वस्तु का पूर्ण स्वरूप तो भेदाभेदात्मक है । वह न केवल अभेदरूप है एवं न केवल भेदरूप अपितु उभय रूप है । वस्तु अनेक विरोधी धर्मों का समुदाय है । उसमें नित्यता- अनित्यता, एकता - अनेकता, सामान्य-विशेष आदि परस्पर विरुद्ध दिखाई देने वाले धर्म युगपत् एक समय में रहते हैं। यह वस्तु मात्र का स्वरूप है । संग्रह नय का आश्रय लेने वाली अभेददृष्टि के अनुसार सत् को अभेदरूप माना जा सकता है किन्तु ऋजुसूत्र नय का आश्रय लेने वाली भेददृष्टि से प्राप्त वस्तु का स्वरूप भी यथार्थ है । तात्पर्य यह है कि अनेकान्त दृष्टि के अनुसार भेद एवं अभेद दोनों ही वास्तविक सत् हैं । जलराशि में अखण्ड एक समुद्र की प्रतीति भी सत्य है एवं अंतिम जलकण की प्रतीति भी सम्यक् है । एक इसलिए वास्तविक हैं कि अभेद दृष्टि भेदों को अलग-अलग रूप से ग्रहण न करके सबको एक साथ सामान्यरूप से देखती है । स्थान, समय आदि कृत भेद जो एक-दूसरे से व्यावृत्त है उनको अलग-अलग रूप से विषय करने वाली बुद्धि भी वास्तविक है । एकमात्र सामान्य की प्रतीति के समय सत् शब्द का अर्थ इतना विशाल हो जाता है कि उसमें कोई शेष बचता ही नहीं है किन्तु जब हम विश्व को गुण, धर्मकृत भेदों से विभाजित करते हैं, तब विश्व एक सत् रूप न रहकर अनेक सत् रूप प्रतीत होने लगता है । 'विश्वमेकं सतोऽविशेषात्' की ध्वनि भी यथार्थ है एवं विश्व की अनेकता भी यथार्थ है । अनेकान्त दृष्टि विरोधी का समाहार करके वस्तु की सम्यक् व्यवस्था करती है । इस दृष्टि का पक्षकार जैनदर्शन रहा है। इसके अनुसार भिन्न-भिन्न अपेक्षा से एक ही वस्तु नित्य, अनित्य, सामान्य- विशेष रूप है । इस दर्शन में सत् के स्वरूप का विमर्श भी अनेकान्त दृष्टि से ही हुआ है । विभिन्न दर्शनों का अवलोकन करने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि सभी ने 'सत्' रूप में पदार्थों को पहले स्वीकार कर लिया फिर उसके लक्षण एवं स्वरूप पर विमर्श किया है । वेदान्त दर्शन ने ब्रह्म के अस्तित्व को स्वीकार करके उसके स्वरूप को कूटस्थ नित्य अपनी अभेदग्राहिणी दृष्टि से स्वीकार किया है । बौद्ध ने भेदग्राही दृष्टि के द्वारा सत् के स्वरूप को क्षणिक स्वीकार किया है। जैन दर्शन ने अनेकान्त दृष्टि के आधार पर सत् को उत्पाद - व्यय एवं ध्रौव्ययुक्त स्वीकार किया। प्रस्तुत निबन्ध में वेदान्त, बौद्ध एवं जैन दृष्टि से सत् के स्वरूप के बारे में विमर्श किया जायेगा । १२० • व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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