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________________ समग्र देश-काल-व्यापी तथा देश-काल-विनिर्मुक्त एक मात्र सत्-तत्त्व या ब्रह्माद्वैतवाद के अनुसार भेद तथा भेद के ग्राहक प्रमाण मिथ्या हैं । सत् अभेद रूप है तथा वह तर्क एवं वाणी का विषय नहीं है, मात्र अनुभवगम्य है। विश्व के बारे में अनुभव करने वाली दूसरी दृष्टि विशेषग्राहिणी दृष्टि है । उसकी तत्त्वमीमांसा में भेद ही प्रमुख तत्त्व है । इस दृष्टि के अनुसार विश्व में समानता एवं अभेद नाम की कोई वस्तु है ही नहीं । यह दृष्टि विश्व में असमानता ही असमानता देखती है और शनैः शनैः असमानता के मूल का अन्वेषण करती हुई अन्त में वह विश्लेषण की उस भूमिका पर आरूढ़ हो जाती है जहां उसे एकत्व की अनुभूति तो होती ही नहीं बल्कि वह समानता को भी मिथ्या या कृत्रिम ही स्वीकार करती है । इस दृष्टि के अनुसार संसार के सम्पूर्ण पदार्थ अत्यन्त भिन्न हैं । विश्व भेदों का पुञ्ज मात्र है । विश्व में एक तत्त्व या साम्य का वास्तविक अस्तित्व ही नहीं है । अविद्या के कारण व्यक्ति विभिन्नता में एकता का दर्शन करता है। जैसे दीपक की लौ निरन्तर नई-नई पैदा होती रहती है मात्र दृष्टि भ्रम से व्यक्ति उसे एक मानता रहता है। वैसे ही यह सम्पूर्ण विश्व परस्पर अत्यन्त भिन्न है । मिथ्याज्ञान के कारण उसमें एकत्व का अध्यारोप कर लिया जाता है। इस दृष्टि के अनुसार सत् पदार्थ केवल देश एवं काल से ही भिन्न नहीं है बल्कि स्वरूप से भी भिन्न है तथा वे मात्र अनुभवगम्य है I 1 एकान्त अभेदग्राहिणी दृष्टि से अद्वैत वेदान्त का मत प्रादुर्भूत हुआ तथा एकान्त भेदग्राहिणी दृष्टि के द्वारा बौद्ध दर्शन का क्षणभंगवाद उत्पन्न हुआ। ये दोनों परस्पर विरोधी दृष्टियां एकान्त का आश्रय लेने के कारण विश्व के मूलभूत तत्त्व के संदर्भ से सर्वथा विरोधी हो जाती है तथा एक-दूसरे पर आक्षेप - प्रत्याक्षेप करती रही हैं । 1 दर्शन जगत् में विश्व के बारे में चिन्तन करने वाली एक महत्त्वपूर्ण दृष्टि का विकास हुआ जिसे अनेकान्त दृष्टि कहा जाता है । इस दृष्टि के अनुसार विश्व में दृष्टिगोचर होने वाला भेद एवं अभेद दोनों ही अपनी विशेष प्रकार की अपेक्षा से सत्य है । अभेद एवं भेद दोनों ही दृष्टियां अपने विषय क्षेत्र में सत्य हैं एवं उनसे उपलब्ध तथ्य में सत्यांश अवश्य है । अभेदात्मक एवं भेदात्मक दोनों ही प्रतीतियां वास्तविक हैं किन्तु उनकी वास्तविकता परस्पर सापेक्ष होने से ही हो सकती । यदि अभेद या भेद दृष्टि अपने को पूर्ण एवं अन्य को अवास्तविक मानती है तो वे स्वयं ही अप्रामाणिक हो जाती हैं 1 1 सामान्य एवं विशेष की प्रतीति अपने विषय में यथार्थ होने पर भी पूर्ण व्रात्य दर्शन • ११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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