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________________ १३. जैन, बौद्ध एवं वेदान्त दर्शन के अनुसार सत् की अवधारणा विश्व का वैविध्य दृग्गोचर है । जगत् के विस्तार को देखकर उसके मूल स्रोत की जिज्ञासा उत्पन्न होना स्वाभाविक है । विश्व का विस्तार एवं मूल सत् रूप है अथवा असत् रूप है । यह जिज्ञासा भी दार्शनिकों के चिन्ता का विषय रही है । एक समान दृष्टिगोचर होने वाले जगत् के बारे में चिन्तकों में विचार भेद रहा है 1 विश्व के संदर्भ में विचार करने वाली दृष्टियों की परस्पर भिन्नता होने के कारण उससे प्राप्त परिणाम में भिन्नता होनी स्वाभाविक ही है । तत्त्व के संदर्भ में विमर्श करने वाली मुख्यतः दो दृष्टियां हैं - अभेददृष्टि एवं भेददृष्टि । अभेद दृष्टि अनेकता में एकता का दर्शन करती है । वह सामान्यग्राहिणी दृष्टि है। यह दृष्टि प्रारम्भ में विश्व के समस्त पदार्थों में समानता का दर्शन करती है और धीरे-धीरे अभेद की ओर उन्मुख होते हुए अन्ततोगत्वा सम्पूर्ण विश्व का एक कारण स्वीकार कर लेती है और निश्चय करती है कि जो कुछ प्रतीति में आ रहा है वह तत्त्व वास्तव में एक ही है अनेक नहीं है, अविद्या के कारण अनेक की प्रतीति हो रही है । इस प्रकार वह अभेदगामिनी दृष्टि समानता की प्राथमिक भूमिका को छोड़कर अन्त में तात्विक एकता की भूमिका पर अवस्थित हो जाती है । इस दृष्टि के अनुसार एकत्व ही एकमात्र सत् है । अभेदग्राही होने के कारण यह विचारसरणी या तो भेदों की तरफ ध्यान ही नहीं देती, यदि भेद पर विचार करती भी है तो उन्हें व्यावहारिक या अपारमार्थिक या बाधित कहकर छोड़ देती है । इस दृष्टि के अनुसार भेद मिथ्या या काल्पनिक है । अभेद या एकत्व ही वास्तविक सत् है । इस दृष्टि का आधार समन्वय मात्र है । इस सामान्यग्राहिणी दृष्टि के द्वारा ११८ • व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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