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________________ नामक अवस्था से की जा सकती है। जिन कर्मों का फल भोग प्रारम्भ हो जाता है उसे प्रारब्ध कहते हैं। यह उदय स्थानीय है। जो कर्म किये जा रहे हैं उनको क्रियमाण कहते हैं इसकी तुलना बध्यमान कर्म से की जा सकती है। डॉ. टाटिया संचित कर्म की तुलना जैन कर्म की सत्ता से, प्रारब्ध की तुलना उदय एवं क्रियमाण कर्म की तुलना बध्यमान कर्म से करते हैं। दोनों परम्परा की कर्म की अवस्थाओं पर विचार करने से ज्ञात होता है कि उनका परस्पर नाम का भेद है, स्वरूप में कोई भेद प्रतीत नहीं होता। कर्मफल संविभाग कर्मफल संविभाग का अभिप्राय एक व्यक्ति के किये हुए कर्म के फल का दूसरे को मिलने से है। इस परम्परा में कर्म संविभाग की अवधारणा स्वीकृत है। पेतरों आदि के श्राद्ध-तर्पण आदि की व्यवस्था इसी आधार पर है। जैनदर्शन कर्मफल के संविभाग को स्वीकार नहीं करता है। कर्म-विपाक कृत कर्मों का फल प्राप्त होता है। ये कर्म नियत एवं अनियत विपाकी होते हैं। कर्म को मानने वाली प्रायः सभी परम्पराओं ने कर्म को नियत एवं अनियतविपाकी माना है। चार्वाक के अतिरिक्त सभी भारतीय परम्पराओं ने कर्म को स्वीकार किया है। कर्म के सिद्धान्त के बिना पुनर्जन्म की व्यवस्था ही नहीं की जा सकती है। कर्म की कतिपय अवधारणाओं के सम्बन्ध में उनमें परस्पर मतैक्य है तथा अनेक अवधारणाओं के संदर्भ में मतभेद भी है। कर्म का विस्तृत एवं व्यवस्थित वर्णन जैसा जैन दर्शन में हआ है वैसा अन्य परम्परा में दृष्टिगोचर नहीं होता। जैन परम्परा में कर्म-सिद्धान्त की व्याख्या करने वाले अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध हैं। जैन कर्म सिद्धान्त का इतर दर्शनों के कर्म सिद्धान्त से तुलनात्मक विवेचन एक नयी दृष्टि प्रदान करता है। व्रात्य दर्शन - ११७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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