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बंधन को द्रव्यकर्म स्थानीय स्वीकार किरा जा सकता है।
वेदान्त ज्ञान-मीमांसा पर आधृत है उसे उत्तर-मीमांसा कहा जाता है। उसने कर्म के संदर्भ में पूर्व मीमांसा के मन्तव्य को ही प्रायः स्वीकार किया है। पूर्व मीमांसा कर्म की मीमांसा पर आधृत दर्शन है।
पूर्व मीमांसा में यज्ञ आदि को कर्म कहा गया है। मुख्य कर्म तीन प्रकार के हैं
१. नित्यकर्म-जिनका अनुष्ठान प्रतिदिन करना अनिवार्य है। जिनके नहीं करने से पाप का बन्ध होता है।
२. नैमित्तिक कर्म-सूतक, पातक आदि निमित्तों के आधार पर किये जाने वाले कर्म।
३. काम्यकर्म-पुत्र आदि की प्राप्ति से किये जाने वाले कर्म।
इन यज्ञ आदि कर्म से अपूर्व नाम के पदार्थ की उत्पत्ति होती है। मनुष्य जो कुछ भी अनुष्ठान करता है वह क्रिया रूप होने के कारण क्षणिक है अतः उस अनुष्ठान से अपूर्व नामक पदार्थ का जन्म होता है जो यज्ञ आदि अनुष्ठान का फल प्रदान करता है। वेदविहित कर्म से जिस शक्ति अथवा संस्कार का प्रादुर्भाव होता है उसी को अपूर्व कहा जाता है। अन्य दार्शनिक जिसे संस्कार, योग्यता, शक्ति कहते हैं उसे मीमांसक अपूर्व शब्द के प्रयोग से व्यक्त करते हैं। मीमांसक यह भी मानते हैं कि अपूर्व अथवा शक्ति का आश्रय आत्मा है और आत्मा के समान अपूर्व भी अमूर्त है।
मीमांसक के अनुसार कार्य निष्पादन का क्रम यह होता है-कामना, कामना से यज्ञ आदि की प्रवृत्ति, प्रवृत्ति से अपूर्व की उत्पत्ति। जैन परिभाषा में कामना या तृष्णा को भावकर्म, यज्ञ आदि की प्रवृत्ति को योग और अपूर्व को द्रव्यकर्म कहा जा सकता है। मीमांसक अपूर्व को अमूर्त मानता है यद्यपि जैन का द्रव्य कर्म अमूर्त नही है तथापि वह अपूर्व के समान अतीन्द्रिय तो है ही। कर्म की अवस्था
जैन दर्शन में बंध, सत्ता आदि कर्म की दश अवस्थाएं मानी गयी हैं। इनमें कुछ अवस्थाओं का नामान्तर से उल्लेख वैदिक परम्परा में भी प्राप्त होता है। वैदिक परम्परा में कर्म की संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण-ऐसी तीन अवस्थाएं मानी गयी है। पूर्व एवं वर्तमान जीवन के उन कर्मों को संचित कहते हैं जिनका फलोपभोग अभी शुरू नहीं हुआ है। संचित अवस्था की तुलना जैन कर्म की सत्ता
११६ . व्रात्य दर्शन
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