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________________ विच्छिन्न एवं उदार इन चार रूपों में विद्यमान रहते हैं। उपाध्यायजी के अनुसार क्लेश की प्रसुप्तावस्था जैन मान्य अबाधाकाल सदृश है। तनु अवस्था उपशम एवं क्षयोपशम स्थानीय है। विच्छिन्न विरोधी प्रकृति के उदय से व्यवहित स्थानीय है। उदार अवस्था उदय स्थानीय है। योगदर्शन एवं जैनदर्शन के कर्म सिद्धान्त के विमर्श से अवबोध प्राप्त होता है कि इन दोनों परम्पराओं में कर्म की अवधारणा के संदर्भ में निकटता है। गंभीरता से विचार करने से इस सम्बन्ध में अनेक नये तथ्य उपलब्ध हो सकते हैं। वेदान्त दर्शन वैदिक परम्परा में कर्म के अनेक रूप परिलक्षित होते हैं। उपनिषदों के पूर्व के ग्रंथों में कर्म का तात्पर्य मात्र यज्ञ, यागादि, नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं से माना गया है। यज्ञ आदि से उत्पन्न अपूर्व पदार्थ की स्वीकृति भी उस दर्शन में हुई। शंकराचार्य ने मीमांसक सम्मत इस अपूर्व की कल्पना का अथवा सूक्ष्मशक्ति की कल्पना का खण्डन किया है और यह बात सिद्ध की है कि ईश्वर कर्म के अनुसार फल प्रदान करता है। उन्होंने इस पक्ष का समर्थन किया है कि फल की प्राप्ति कर्म से नहीं अपितु ईश्वर से होती है। कर्म स्वरूप की एकता कर्म स्वरूप के विमर्श से यही निष्कर्ष प्राप्त होता है कि भावकर्म के विषय में किसी भी दार्शनिक को आपत्ति नहीं है। सभी के मत में राग-द्वेष और मोह कर्म अथवा कर्म के कारण है। वेदान्त दर्शन में अविद्या या माया कर्म स्थानीय है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार बंधन का मूल कारण अविद्या या अज्ञान है। अविद्या आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं है अपितु वह जीव की मिथ्या कल्पना का परिणाम है। शंकराचार्य का मन्तव्य है कि यदि हम यह स्वीकार कर लें कि अविद्या आत्मा का स्वाभाविक गुण है तो ऐसी स्थिति में अज्ञान का कभी भी अन्त ही नहीं होगा, जीव की मुक्ति ही नहीं हो सकेगी, वह निरन्तर बंधन में ही पड़ा रहेगा। बंधन केवल व्यावहारिक दृष्टिकोण से ही सत्य है। पारमार्थिक सत्य तो यह है कि जीव न कभी बंधन में पड़ता है तथा न कभी मोक्ष को प्राप्त करता है। शंकर के अनुसार बंधन और मोक्ष दोनों ही व्यावहारिक है। शंकर की अविद्या की अवधारणा जैनदर्शन सम्मत भावकर्म के सदृश है। उस अविद्या से होने वाले व्रात्य दर्शन - ११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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