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विपाक से तुलनीय है। आयु विपाक की तुलना जैनदर्शन के आयुष्यकर्म के विपाक से की जा सकती है। योग एवं जैनदर्शन दोनों में ही सोपक्रम एवं निरूपक्रम के भेद से आयुविपाक को उभयरूप स्वीकार किया है। किसी बाह्य निमित्त को प्राप्त कर यदि आयु समाप्त हो जाती है तो वह सोपक्रम आयु है और यदि बाह्य निमित्त से आयु समाप्त नहीं की जा सके वह निरूपक्रम आयु है। सुख, दुःख, रूप भोग की तुलना वेदनीय कर्म से की जा सकती है। पातञ्जल योगदर्शन में प्रकाशावरण एवं विवेक ज्ञानावरणीय कर्म का उल्लेख हुआ है उसकी तुलना जैन सम्मत ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म से की जा सकती है।
योगदर्शन में जैनदर्शन की भांति कर्माशय को नियत-विपाकी एवं अनियत विपाकी उभयविध माना है। योगदर्शन में कर्म विपाक की अनियतता पर अधिक बल दिया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वजन्म की पाप राशि वर्तमान जन्म के पुण्य प्रभाव से बिना विपाक दिये हुए ही नष्ट हो जाती है। विपाक के सम्बन्ध में जैन मत में प्रत्येक कर्म का विपाक नियत है वैसे योगदर्शन में नियत नहीं है। योग मत के अनुसार सभी संचित कर्म मिलकर उक्त जाति, आयु और भोगरूप विपाक का कारण बनते हैं।
कर्माशय का विपाक दो प्रकार का है-अदृष्टजन्म वेदनीय और दृष्टजन्म वेदनीय। जिसका विपाक दूसरे जन्म में मिले वह अदृष्टजन्म वेदनीय कहलाता है तथा जिसका फल इस जन्म में मिल जाए वह दृष्टजन्म वेदनीय कहलाता है। योगदर्शन के अनुसार अदृष्टजन्म वेदनीय के जाति, आयु एवं भोग ये तीनों विपाक होते हैं किन्तु दृष्टजन्म वेदनीय के आयु तथा भोग अथवा केवल भोग रूप विपाक ही होता है। जन्म रूप विपाक नहीं हो सकता यदि दृष्टजन्म वेदनीय में भी जन्म रूप विपाक स्वीकार कर लिया जाये तो वह भी अदृष्टजन्म वेदनीय ही हो जायेगा। योगदर्शन के अनुसार कृष्ण कर्म की अपेक्षा शुक्ल कर्म अधिक बलवान् होते हैं। शुक्ल कर्म का उदय होने पर कृष्ण कर्मफल दिये बिना ही नष्ट हो जाते हैं। कर्म की अवस्था
जैनदर्शन में कर्म की बंध आदि दश अवस्थाएं मानी गयी हैं। पातञ्जल योग दर्शन में भी क्लेशों की विभिन्न अवस्थाओं का उल्लेख है। जैन न्याय के विशिष्ट विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजी ने भावों के साथ पांच क्लेशों के आविर्भाव एवं तिरोभाव की तुलना की है। उन्होंने अविद्या, अस्मिता आदि पांच क्लेशों को मोहनीय कर्म का उदयरूप माना है। पतञ्जलि के अनुसार क्लेश प्रसुप्त, तनु,
११४ - व्रात्य दर्शन
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