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________________ कर्म अशुक्लाकृष्ण को छोड़कर तीन प्रकार के होते हैं। जैन परिभाषा में कृष्ण को पाप एवं शुक्ल को पुण्यकर्म कहा जा सकता है। जैन कर्म सिद्धान्त की मान्यता के अनुसार व्यक्ति जैसी प्रवृत्ति करता है उसके अनुसार ही उसके कर्मों का बंध होता है। यदि प्राणी की प्रवृत्ति शुभ है जिसको जैन परिभाषा में शुभयोग कहा जाता है, उससे शुक्ल अर्थात् पुण्यकर्म का आकर्षण होगा। एक व्यक्ति के एक ही प्रकार के कर्म का बंध होगा ऐसी जैन अवधारणा नहीं है। यद्यपि जैन परम्परा में भी यह माना जाता है कि ई-पथिकी क्रिया अर्थात् वीतराग की क्रिया से केवल शुक्ल कर्मों का ही बंध होता है, किन्तु वीतराग के शुक्ल कर्मों का बंध भी दो समय वाला होता है, पहले समय में वह उसे बांधता है, दूसरे में भोग लेता है, उस कर्म की कोई वासना या संस्कार नहीं बनते अतः एक अपेक्षा से वीतराग के कर्मबंध को अशुक्लाकृष्ण कह सकते हैं। सम्परायक्रिया अर्थात् सकषायी प्राणी की क्रिया से शुक्ल एवं कृष्ण, पुण्य एवं पाप दोनों ही प्रकार के कर्मों का बंध होता है। ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र एवं अन्तराय ये मुख्य रूप से आठ कर्म जैनदर्शन में माने गये हैं। उनमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय ये चार कर्म एकान्त रूप से कृष्ण पापकर्म है। जैनदर्शन में इन चार कर्मों को घाती कर्म कहा जाता है। वेदनीय, आयुष्य, नाम एवं गोत्र कर्म शुक्ल एवं कृष्ण/पुण्य एवं पाप उभयरूप है। इन चार कर्मों को जैन दर्शन में अघाती कर्म कहा जाता है। कर्म का विपाक योग दर्शन के अनुसार कर्म का फल/विपाक जाति, आयु और भोग रूप से तीन प्रकार का होता है। जाति पद मनुष्य, पशु, देव आदि योनियों का सूचक है। एक निश्चित अवधि तक देह तथा प्राण के संयोग की सूचना आयु पद से हो रही है तथा भोग शब्द सुख-दुःख रूप अनुभूति को अभिव्यञ्जित कर रहा है। योग सम्मत ये तीनों पद एक-दूसरे से इतने आबद्ध हैं कि एक के अभाव में दूसरे की संभावना ही असंभव है क्योंकि व्यक्ति अपने द्वारा किये गये कर्मों के अनुसार सुख दुःख का भोग तभी कर सकता है जब उसके पास आयु हो और आयु वह तभी धारण कर सकता है जब उसने जन्म लिया हो। इस प्रकार जाति (जन्म) आयु (उम्र) एवं भोग रूप तीनों फल परस्पर सम्बद्ध है। इस विवेचन से स्पष्ट है कि योग सम्मत जाति जैनदर्शन के नाम कर्म के व्रात्य दर्शन - ११३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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