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'अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः' । इन पांच क्लेशों के कारण क्लिष्टवृत्ति चित्त व्यापार की उत्पत्ति होती है और उससे धर्म-अधर्म रूप संस्कार उत्पन्न होते हैं। जैन परिभाषा में क्लेशों को भावकर्म, वृत्ति को योग एवं संस्कार को द्रव्य-कर्म समझा जा सकता है। योग दर्शन में संस्कार को वासना, कर्म और अपूर्व भी कहा गया है। यहां क्लेश और कर्म का कार्य-कारणभाव जैनदर्शन के समान बीज अंकुरवत् अनादि स्वीकार किया गया है। सांख्य दर्शन की भी मान्यता योग दर्शन जैसी है ।
जैन मतानुसार मोह, राग, द्वेष आदि के कारण अनादिकाल से आत्मा के साथ पौद्गलिक कार्मण शरीर का सम्बन्ध है । इसी प्रकार सांख्य मत में लिंग शरीर अनादिकाल से पुरुष के संसर्ग में है। इस लिंग शरीर की उत्पत्ति राग, द्वेष, मोह जैसे भावों से होती है तथा भाव एवं लिंग शरीर में भी बीज एवं अंकुर की तरह कार्य - कारण - भाव है । जैसे जैन औदारिक स्थूल शरीर को कार्मण शरीर से भिन्न मानते हैं, वैसे ही सांख्य भी लिंग (सूक्ष्म) शरीर को स्थूल शरीर से पृथक् मानते हैं । जैनों के कार्मण शरीर एवं सांख्य के लिंग शरीर में बहुत कुछ समानता है। जैन सम्मत भावकर्म की तुलना सांख्य सम्मत भावों से, योग की तुलना वृत्ति से तथा द्रव्यकर्म अथवा कार्मण शरीर की तुलना लिंग शरीर से की जा सकती है । जैन तथा सांख्य दोनों ही कर्मफल अथवा कर्म निप्पत्ति में ईश्वर जैसे किसी कारण को स्वीकार नहीं करते हैं । जैन और योग में अन्तर यह है कि योगदर्शन की प्रक्रिया के अनुसार क्लेश, क्लिष्टवृत्ति और संस्कार इन सबका सम्बन्ध आत्मा से नहीं है अपितु चित्त अथवा अन्तःकरण के साथ है और यह अन्तःकरण प्रकृति का विकार है। जैन के अनुसार इनका सम्बन्ध आत्मा से है जो परिणामी नित्य है ।
कर्म के प्रकार
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योग दर्शन में कर्म चार प्रकार का माना गया है-कृष्ण, शुक्ल, शुक्ल- कृष्ण और अशुक्लकृष्ण । कृष्ण को पापकर्म तथा शुक्ल को पुण्य कर्म कहा जाता है इनमें दुरात्माओं का कर्म कृष्ण है, कृष्ण-शुक्ल कर्म बाह्य व्यापार से साध्य होता है, उसमें परपीड़न तथा परानुग्रह से कर्माशय संचित होता है । तपस्वी, स्वाध्यायी और ध्यानी व्यक्तियों का कर्म शुक्ल है, यह केवल मन के अधीन होने के कारण बाह्यसाधन शून्य है, अतः यह कर्म पर-पीड़नपूर्वक नहीं होता है। क्लेशहीन, चरमदेह संन्यासियों का कर्म अशुक्लाकृष्ण है। योगियों का कर्मफल संन्यास के कारण अशुक्ल और निषिद्ध कर्म-त्याग के कारण अकृष्ण होता है । अन्य प्राणियों के
११२ • व्रात्य दर्शन
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