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भागीदार नहीं बन सकता। जो कर्म करता है उसी को उसका फल भोगना पड़ता है। उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि उसके दुःख को न ज्ञातिजन बांट सकते हैं और न मित्र, पुत्र, बंधुजन। वह स्वयं अकेला ही प्राप्त दुःखों को भोगता है क्योंकि कर्म कर्ता के पीछे चलता है। भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि प्राणी स्वकृत सुख-दुःख का भोग करते हैं परकृत सुख-दुःख का भोग नहीं करते हैं।
बौद्ध दर्शन के अनुसार कर्मफल संविभाग में दूसरे को सम्मिलित किया जा सकता है। बौद्ध दर्शन में बोधि-सत्व का आदर्श कर्मफल संविभाग के विचार को पुष्ट करता है। बोधि-सत्व तो सदैव कामना करते हैं कि उनके कुशल कर्मों का फल विश्व के समस्त प्राणियों को मिले। बौद्ध दर्शन यह मानता है कि केवल शुभकर्मों के फल में दूसरे को सम्मिलित किया जा सकता है। पापकर्म का फल तो कर्म के कर्ता को ही भोगना पड़ता है। कर्मफल के संविभाग के संदर्भ में आचार्य नरेन्द्रदेव लिखते हैं कि सामान्य नियम यह है कि कर्म स्वकीय है, जो करता है, वही उसका फल भोगता है। किन्तु पालिनिकाय में पुण्य-परिणामना का उल्लेख है। बौद्धों के अनुसार व्यक्ति अपने पुण्य कर्म में दूसरे को सम्मिलित कर सकते हैं पाप में नहीं कर सकते।
कर्मफल का नियामक
कर्मफल की प्राप्ति के विषय में न्याय, वैशेषिक दर्शन एवं शंकराचार्य आदि चिन्तकों का मन्तव्य है कि कर्म अचेतन होते हैं अतः वे अपना फल स्वतः नहीं दे सकते। कर्मों का फल सर्वशक्तिमान ईश्वर के अधीन है किन्तु जैन एवं बौद्ध दोनों ही दर्शन कर्मफल के संदर्भ में ईश्वर को स्वीकार नहीं करते हैं। कर्म स्वयं ही अपने फल को देने में समर्थ है। उसके लिए अन्य कर्मफल प्रदाता की आवश्यकता नहीं है।
जैन एवं बौद्ध दोनों ही कर्म को सूक्ष्म मानते हैं। उनको स्थूल पदार्थों की तरह इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं बनाया जा सकता। जैन एवं बौद्ध दोनों ही श्रमण परम्परा के है। इन परम्पराओं में कर्म को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
योगदर्शन
योगदर्शन की कर्म प्रक्रिया की जैन दर्शन से बहुत समानता है। योग दर्शन के अनुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश ये पांच क्लेश हैं
व्रात्य दर्शन - १११
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