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'व्रतों की विश्रुत विधा यह श्रमण-संस्कृति से चली, अविच्छिन्न परम्परा अध्यात्म ढांचे में ढली। साधना आराधना हित शरच्चन्द्र-समुज्ज्वला,
चली ज्यों चलती रहे, जिनधर्म की अविकल कला ।' 'व्रात्य' शब्द का प्रयोग वेद में अनेकशः हुआ है। अथर्ववेद की शौनक शाखा की संहिता के १५वें काण्ड का नाम ही 'ब्रात्यकाण्ड' है। आचार्य सायण ने व्रात्य को विद्वत्तम, महाधिकार, पुण्यशील और विश्व-सम्मान्य कहा है
'कञ्चिद् विद्वत्तमं महाधिकारं पुण्यशीलं विश्व-सम्मान्यं कर्मपरैर्ब्राह्मणैर्विद्विष्टं व्रात्यमनुलक्ष्य वचनमिति मन्तव्यम्।
(अथर्ववेद १५/१/१ संस्कृत भूमिका) सामान्यतः व्रात्य उस मनुष्य को कहा जाता है जिसका जन्म तो द्विजकुल में हुआ हो किंतु उसका उपनयनादि संस्कार नहीं हुआ हो, ऐसा भनुष्य वैदिक कृत्यों के लिए अनधिकारी माना जाता है। सायण ने व्रात्य की प्रशंसा में लिखा है- 'यदि कोई व्रात्य विद्वान् और तपस्वी है, उससे ब्राह्मण भले ही द्वेष करे परन्तु वह सर्वपूज्य होगा और देवाधिदेव परमात्मा के तुल्य होगा।
श्री बलदेव उपाध्याय ने व्रात्य का अर्थ ब्रह्म किया है। 'आचार-विचार से रहित तथा नियम की श्रृंखला में बद्ध न होने वाले व्यक्ति का द्योतक होने के कारण व्रात्य शब्द का लाक्षणिक अर्थ हुआ-ब्रह्म, जो जगत् के नियमों की श्रृंखला में न बद्ध है और न जो कार्यकारण की भावना से ओतप्रोत है। 'व्रात्यो वा इदम अग्र आसीत्' पैप्लाद शाखा के इस वाक्य से स्पष्ट है कि जगत् के आदि में व्रात्य ही केवल विद्यमान था। फलतः 'व्रात्य' शब्द से ब्रह्म का ही यहां संकेत है। श्री सम्पूर्णानंदजी ने 'व्रात्य' का अर्थ परमात्मा किया है। सायण जैसे प्राचीन भाष्यकार से लेकर श्री बलदेव उपाध्याय तक कि आधुनिक वैदिक विद्वानों ने व्रात्य को विशिष्ट सम्मानजनक स्थान दिया है। व्रात्य को ब्रह्म अथवा परमात्मस्वरूप माना है।
आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के अनुसार अथर्ववेद के व्रात्य-काण्ड का सम्बन्ध किसी ब्राह्मणेतर परम्परा से है। व्रात्यकाण्ड में प्रतिपादित सूत्रों के आधार पर कहा जा सकता है कि व्रात्य का सम्बन्ध किसी देहधारी व्यक्ति से है। व्रात्य काण्ड में वर्णित कुछ सूत्रों से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है।
'यदि किसी के घर ऐसा विद्वान् व्रात्य अतिथि आ जाए तो स्वयं उसके
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