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प्ररोचना
अध्यात्म-विकास के लिए व्रतों का स्वीकरण जैन-परम्परा का मान्य सिद्धान्त रहा है। जैन साधना पद्धति के दो मुख्य घटक तत्व हैं-संवर और निर्जरा। संवर की साधना के द्वारा आते हुए कर्मो के प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया जाता है तथा निर्जरा की साधना से पूर्व संचित कर्ममल विनष्ट हो जाता है। साधक संबर एवं निर्जरा के पथ पर आरूढ़ होकर अपने परम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। जैन साधना पद्धति में निर्जरा से भी अधिक महत्ता संवर की साधना को प्राप्त है। निर्जरा तो प्रथम गुणस्थानवी जीव के भी होती है किंतु संवर पंचम गुणस्थान से प्रारम्भ होता है। व्रत स्वीकार किये बिना संवर घटित नहीं हो सकता। सम्यक्-दृष्टि जीव भी यदि त्याग-प्रत्याख्यान नहीं करता है तो उसके संवर नहीं होता। व्रत स्वीकार किये बिना वह अध्यात्म के अग्रिम सोपानों का आरोहण नहीं कर सकता। आचार्य हेमचन्द्र ने संसार और मोक्ष के हेतु को प्रस्तुत करते हुए कहा है
आश्रवो भवहेतुः स्यात् संवरो मोक्षकारणम्।
इतीयमार्हतीदृष्टिरन्यदस्याः प्रपञ्चनम् ॥ उन्होंने संवर को ही मोक्ष का कारण माना है। संवर की साधना व्रतों के स्वीकरण से ही प्रारम्भ होती है। तत्वार्थसूत्र में संवर की साधना के उपायों का उल्लेख करते हुए कहा गया--
‘स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः' गुप्ति, सपिति, दशधर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय एवं चारित्र की आराधना संवर के साधन हैं। श्रमण संस्कृति में व्रतों का महत्त्वपूर्ण स्थान है अतः इसे 'व्रात्य संस्कृति' कहा जा सकता है। जो व्रतों का पालन करता है, वह व्रात्य होता है। आचार्यश्री तुलसी ने 'श्रावक संबोध' में व्रत का सम्बन्ध श्रमण संस्कृति से जोड़ा
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