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योग एवं वेदान्त दर्शन के कर्म सिद्धान्त की तुलना का प्रयत्न किया जायेगा। बौद्ध दर्शन
जैन एवं बौद्ध दोनों ही दर्शन सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को स्वीकार नहीं करते हैं। उनके अनुसार जगत् की विविधता कर्मकृत है। कर्म का कर्ता प्राणी है। वह कर्म का बन्धन करता है फिर कर्म उसे अपना फल देते हैं इस प्रकार यह क्रम चलता रहता है।
कर्म के भेद
बौद्ध दर्शन में मुख्यरूप से कर्म के दो प्रकार हैं-१. चेतना और २. चेतयित्वा । चेतना मानस कर्म है। चेतना से जो उत्पन्न होता है वह चेतयित्वा कर्म है। चेतयित्वा कर्म दो प्रकार का है-कायिक और वाचिक। इस प्रकार मानसिक, वाचिक एवं कायिक के भेद से कर्म के तीन प्रकार हो जाते हैं। आश्रय, स्वभाव और समुत्थान की दृष्टि से इन तीनों कर्मों का अपना विशिष्ट स्थान है। आश्रय की दृष्टि से कायकर्म प्रधान है क्योंकि सब कर्म काय पर आश्रित है। स्वभाव की दृष्टि से विचार करें तो वाक् कर्म ही एक कर्म है, अन्य दो का कर्मत्व नहीं होगा क्योंकि काय, वाक् और मन इन तीन में से केवल वाक् स्वभावतः कर्म है। यदि समुत्थान की दृष्टि से चिन्तन करें तो केवल मनस् कर्म है क्योंकि सब कर्मों का प्रारम्भ मन से ही होता है। इस प्रकार विशेष प्रकार की अपेक्षा से अलग-अलग कर्म की प्रधानता हो जाती है। कर्म के ये तीन भेद प्राचीन माने जाते हैं।
जैन दर्शन में इस मन-वचन एवं काया की प्रवृत्ति को योग कहते हैं। इससे कर्म का आकर्षण होता है उसे द्रव्यकर्म कहा जाता है। द्रव्य कर्म के ज्ञानावरणीय आदि अनेक भेद-प्रभेद हैं।।
जैन दर्शन के अनुसार कर्म के दो प्रकार हैं-द्रव्यकर्म एवं भावकर्म। भावकर्म आत्मा की प्रवृत्ति है एवं द्रव्यकर्म उस प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट होकर आत्मा के चिपकने वाले कर्म पुद्गल हैं। राग, द्वेष, मोह आदि भावकर्म हैं। जैनों के सदृश बौद्ध ने भी कर्म की उत्पत्ति में राग, द्वेष एवं मोह को कारण रूप से मान्य किया है। बौद्ध दर्शन में कर्म मात्र चैतसिक है। जैन के अनुसार कर्म चैतसिक तो है ही किन्तु द्रव्यकर्म पौद्गलिक है। कर्मों को पौद्गलिक मानना जैन दर्शन की मौलिक अवधारणा है।
कर्म के दो अन्य भेद भी बौद्ध दर्शन में उपलब्ध होते हैं-विज्ञप्ति कर्म १०८ . व्रात्य दर्शन
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