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अर्थात् काय एवं वाणी के द्वारा चित्त की अभिव्यक्ति और अविज्ञप्ति कर्म अर्थात् विज्ञप्ति से उत्पन्न कुशल और अकुशल कर्म। विशुद्धिमग्ग में कर्म को अरूपी कहा है तथा अभिधर्मकोश में उसे अविज्ञप्ति रूप माना गया है। बौद्ध दर्शन में कर्म को मानसिक वाचिक और कायिक मानकर उसे विज्ञप्ति रूप कहा है। विज्ञप्ति और अविज्ञप्ति कर्म भावों के अनुसार शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं। जैन धर्म के द्रव्य एवं भावकर्म की तुलना एक अपेक्षा से इनके साथ की जा सकती है। वासना और अविज्ञप्ति कर्म को जैन धर्म का द्रव्य कर्म तथा विज्ञप्ति कर्म को जैनधर्म का भावकर्म कहा जा सकता है। कर्मविपाक की अवधारणा
जैन दर्शन के अनुसार कृत कर्मों का फल भोग किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्राप्त होता है। 'कडाण कम्माण णत्थि मोक्खो' जो कर्म किये हैं उनका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता। किन्तु कर्म की अवस्थाओं में समय, शक्ति, रस आदि के विपाक को कम, अधिक एवं परिवर्तित भी किया जा सकता है।
जैन के अनुसार कुछ कर्म नियत विपाकी होते हैं कुछ अनियत विपाकी होते हैं। जिनका विपाक नियत है, उनमें किसी भी प्रकार से हेराफेरी नहीं की जा सकती है। वे कर्म जैन परिभाषा में निकाचित कर्म कहलाते हैं। जिन कर्मों का बंध तीव्र कषाय के द्वारा हुआ है वे प्रगाढ़ कर्म है, उनका विपाक नियत होता है। इसके विपरीत जिन कर्मों के बंधन के समय कषाय की अल्पता होती है वे अनियत-विपाकी कर्म हैं अर्थात् उनके फल एवं समय में परिवर्तन किया जा सकता है। जैन कर्म सिद्धान्त की संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा एवं उपशमन की अवस्थाएं कर्मों के अनियत विपाक की ओर संकेत करती है।
बौद्ध दर्शन में भी कर्मों के विपाक की नियतता और अनियतता पर विमर्श किया गया है। बौद्ध दर्शन में कर्मों को नियत विपाकी और अनियत विपाकी दोनों प्रकार का माना गया है।
नियत विपाकी अर्थात् जिनका फलभोग उसी रूप में भोगना अनिवार्य होता है, अनियत विपाकी जिनका फल भोग नियत नहीं होता परिवर्तित हो सकता है। कुछ बौद्ध आचार्यों ने नियत विपाकी और अनियतविपाकी कर्मों में प्रत्येक को चार-चार भागों में विभक्त किया है।
व्रात्य दर्शन - १०६
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