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में भगवान् महावीर कहते हैं जीव कर्म के द्वारा विभक्तिभाव अर्थात् विभिन्नता को प्राप्त होता है । 'कम्मओ णं जीवे णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमई' बौद्ध दर्शन भी जगत् की, लोक की विचित्रता कर्म हेतुक मानता है । कर्मजं लोकवैचित्र्यं ईश्वरवादी चिन्तकों ने भी किसी-न-किसी रूप में इस प्रश्न के समाधान में सहयोगी कारण के रूप में कर्म की अवधारणा को स्वीकार किया है अतः भारतीय चिन्तन की धारा में कर्म सिद्धान्त एक सर्वमान्य विचार का बिन्दु रहा है 1
कर्म का स्वरूप
कर्म का सामान्य अर्थ क्रिया / प्रवृत्ति है । कर्म अर्थात् कुछ करना । मन, वचन एवं शरीर के द्वारा की जाने वाली सम्पूर्ण क्रिया / प्रवृत्ति को कर्म कहा जा सकता है। मीमांसक परम्परा में यज्ञ-यागादि, नित्य नैमित्तिक क्रियाओं को कर्म की संज्ञा
गयी हैं। गीता में कायिक आदि प्रवृत्तियों को कर्म कहा गया। बौद्ध विचारकों ने भी कर्म शब्द का प्रयोग क्रिया के अर्थ में किया है। बौद्ध दर्शन में यद्यपि शारीरिक, वाचिक और मानसिक इन तीनों प्रकार की क्रियाओं के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग हुआ है, फिर भी इन तीनों में चेतना को ही प्रधान माना गया है। योग एवं वेदान्त दर्शन को भी कर्म के विशिष्ट अर्थ के साथ उसका क्रियात्मक अर्थ भी मान्य है। जैन परम्परा में संसारी की प्रत्येक क्रिया अथवा प्रवृत्ति कर्म कहलाती है। जैन परिभाषा में इसको भावकर्म कहते हैं। इसी भावकर्म अर्थात् जीव की शरीर, वाणी एवं मन की क्रिया के द्वारा जो पुद्गल आकर आत्मा के चिपक जाते हैं उनको जैन दर्शन में द्रव्यकर्म कहा जाता है। जैन सिद्धान्त दीपिका में कहा गया- ' - 'आत्मप्रवृत्त्याकृष्टास्तत्प्रायोग्यपुद्गलाः कर्म' आत्मा की प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट एवं कर्म रूप में परिणत होने योग्य पुद्गलों को कर्म कहते हैं कार्मण वर्गणा के पुद्गलों में ही कर्म रूप में परिणत होने की योग्यता है । संसार में अलग-अलग प्रकार के कार्य करने वाले पुद्गलों का समूह उपस्थित है । एक प्रकार का कार्य करने वाले समान जाति वाले पुद्गलों के समूह को वर्गणा कहते हैं । कार्मण वर्गणा के पुद्गल स्कन्धों से ही कर्म का निर्माण हो सकता है । वे पुद्गल स्कन्ध चतुःस्पर्शी होते हैं, अर्थात् उनमें शीत, उष्ण, स्निग्ध एवं रूक्ष ये चार स्पर्श होते हैं। अनन्त प्रदेशी कार्मण वर्गणा के पुद्गलों से ही द्रव्य कर्म का निर्माण हो सकता है इसके अतिरिक्त पुद्गलों में कर्म रूप में परिणत होने की योग्यता नहीं है । प्रायः भारतीय चिन्तकों ने कर्म का क्रिया के अतिरिक्त अन्य अर्थ भी स्वीकार किया है । प्रस्तुत निबंध में जैन कर्म सिद्धान्त के साथ बौद्ध,
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व्रात्य दर्शन १०७
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