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१२. जैन, बौद्ध, योग एवं वेदान्त के कर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक विमर्श
यह दृश्यमान् चराचर जगत् हमारे सामने है, किन्तु यह क्यों है? इसका समाधायक तत्त्व हमारे सामने नहीं है। जो कारण प्रत्यक्ष नहीं होता उसके बारे में जिज्ञासा उठनी भी स्वाभाविक है। जगत् रूप कार्य हम सबके प्रत्यक्ष का विषय है किन्तु इसका कारण प्रत्यक्ष नहीं है। इसके कारण की खोज में दार्शनिक जगत् में नये-नये प्रस्थानों का आविर्भाव हुआ। जगत् है, इसमें विभिन्नता भी दिखाई दे रही है। प्राणियों के स्तर पर भी विभिन्नता है। एक ही प्रजाति के जीवों में भी परस्पर विभिन्नता है। एक मनुष्य का दूसरे से विभेद है। उसकी अपनी सुख-दुःख आदि की अनुभूति भी पृथक् प्रकार की है। शारीरिक रचना. आकार-प्रकार सबमें भेद परिलक्षित है। ज्ञान चेतना का विकास भी एक जैसा नहीं है, उसमें तरतमता स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है। इन्हीं तथ्यों के कारण की खोज में दर्शन जगत् में काल, स्वभाव, नियति, ईश्वर, कर्म आदि सिद्धान्तों का आविर्भाव हुआ।
जगत् एवं जगत् में उपस्थित वैविध्य का कारण कालवादी चिन्तकों ने काल को, स्वभाववादी चिन्तकों ने स्वभाव को, नियतिवादी, ईश्वरवादी, कर्मवादी चिन्तकों ने क्रमशः नियति, ईश्वर एवं कर्म को स्वीकार किया।
कर्म सिद्धान्त का प्रादुर्भाव सृष्टि वैचित्र्य, वैयक्तिक-भिन्नता एवं व्यक्ति की सुख-दुःखात्मक अनुभूतियों के कारण की व्याख्या के प्रयासों में ही हुआ है। वस्तुतः जगत् वैविध्य एवं वैयक्तिक भिन्नताओं की तार्किक व्याख्या ही कर्म सिद्धान्त के उद्भव एवं विकास का कारण बनी है। भारतीय चिन्तकों ने जगत् के कारण की मीमांसा के सन्दर्भ में अनेक विचार उपस्थित किये हैं। जैन दर्शन ने स्पष्ट रूप से जगत् के वैविध्य का कारण कर्म को स्वीकार किया है। भगवतीसूत्र
१०६ - व्रात्य दर्शन
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