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________________ दमन, शमन, मार्गान्तरीकरण, उदात्तीकरण, शोधन आदि शब्दों से प्रस्तुत करते हैं। आवेगों पर नियन्त्रण होना चाहिए, यह तथ्य दोनों ही शास्त्र स्वीकार करते हैं। मोह-कर्म का विश्लेषण मानस-शास्त्र के विवेचन से बहुत साम्य रखता है। कर्मशास्त्र एवं मानसशास्त्र के तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा हम आवेग नियन्त्रण पद्धति के नये आयाम उद्घाटित कर सकते हैं। मौलिक मनोवृत्तियां और कर्म कर्मशास्त्र में शरीर-रचना से लेकर आत्मा के अस्तित्व तक, बन्धन से लेकर मुक्ति तक सभी विषयों पर गहन चिन्तन और मनन हुआ है। कर्मशास्त्रीय ग्रन्थ प्राचीन भाषा में सूत्रात्मक शैली में आबद्ध है। जब तक सूत्रात्मक परिभाषा में गुंथे हुए विशाल चिन्तन को परिभाषा से मुक्त कर वर्तमान के चिन्तन के साथ नहीं पढ़ा जाता, वर्तमान की शब्दावली में प्रस्तुत नहीं किया जाता, तब तक एक महान् सिद्धान्त भी अधिक उपयोगी नहीं बन सकता। __आज मनोवैज्ञानिक मन की हर समस्या पर अध्ययन और विचार कर रहे हैं। कर्मशास्त्रियों ने जिन समस्याओं पर विचार किया, आज उन्हीं समस्याओं पर मनोवैज्ञानिक अध्ययन और शोध कर रहे हैं। यदि मनोविज्ञान के सन्दर्भ में कर्मशास्त्र को पढ़ा जाए तो अनेक गुत्थियां सुलझ सकती हैं। मनोविज्ञान में मूल प्रवृत्तियों की चर्चा मुख्य रूप से होती है। डॉ. मैक्डूगल के अनुसार मूल प्रवृत्ति एक जन्मजात मनः शारीरिक क्षमता है। इस क्षमता के कारण एक प्राणी कुछ चीजों का बोध कर सकता है। उस बोध से उसमें एक प्रकार का उद्वेग या संवेग उत्पन्न होता है, जो उसे एक निश्चित ढंग से कार्य करने को प्रेरित करता है। 'गिन्सबर्ग' के अनुसार मूल प्रवृत्तियां विशिष्ट प्रेरक के प्रति प्रतिक्रिया की वे जन्मजात प्रणालियां हैं, जो अस्तित्व के लिए संघर्ष में उपयोगी होने के कारण प्रजातीय या वंशानुसंक्रमण के द्वारा हस्तांतरित होती हैं। मूल प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार के विचार उपलब्ध होते हैं। मूल प्रवृत्तियां कितने प्रकार की होती हैं? इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। अनेक प्रकार का वर्गीकरण प्राप्त होता है। डॉ. मैक्डूगल का वर्गीकरण सबसे अधिक व्यापक माना गया है। मैक्डूगल ने चौदह मूल प्रवृत्तियां मानी हैं। उनके अनुसार प्रत्येक मूल प्रवृत्ति एक विशेष उद्वेग के द्वारा अनुगमित होती है। पलायन मूल प्रवृत्ति है तथा भय उसका सहवर्ती उद्वेग है। संघर्ष, जिज्ञासा, युयुत्सा आदि मूल प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में जब मोहनीय कर्म की अवधारणा को देखा जाता है व्रात्य दर्शन • ६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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