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________________ व्यक्तित्व के विकास एवं ह्रास में कर्म को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आवेग-नियन्त्रण एवं कर्म मानस-शास्त्र के अनुसार आवेग छह प्रकार के हैं-भय, क्रोध, हर्ष, शोक, प्रेम एवं घृणा। सारे मानवीय आचरणों की व्याख्या आवेगों के आधार पर की जाती है। आवेगों के कारण शारीरिक क्रियाओं में रासायनिक परिवर्तन, शारीरिक लक्षणों एवं अनुभूति आदि में परिवर्तन होता है। आवेगों का जीवन में बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। कर्मशास्त्र में मोहनीय कर्म के चार आवेग माने गये हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ। ये चार मुख्य आवेग हैं, हास्य, रति, भय आदि नौ उप-आवेग हैं। ईर्ष्या आदि को मिश्रित आवेग माना गया है। कर्मशास्त्रीय परिभाषा के अनुसार भी ये मिश्रित है। मूल आवेग कषाय-चतुष्टयी हैं। ___ आवेगों का शोधन, परिवर्तन आदि की प्रक्रिया पर मानस शास्त्र में विचार हुआ है। जैन कर्म-शास्त्र में भी आवेग परिशोधन की विस्तृत प्रक्रिया उपलब्ध है। कर्म-शास्त्र की भाषा में आवेग-नियन्त्रण की तीन पद्धतियां हैं-उपशमन, क्षयोपशमन एवं क्षयीकरण। १. उपशमन-मन में जो आवेग उत्पन्न हुए उनको शान्त कर देना, दबा देना उपशमन प्रक्रिया है। इसमें आवेगों का विलय नहीं होता किन्तु वे एक बार तिरोहित जैसे प्रतीत होते हैं किन्तु पुनः उभर जाते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में इसे दमन की पद्धति कहा गया है। मनोविज्ञान दमन की प्रक्रिया को स्वस्थ नहीं मानता। कर्म-शास्त्र में यह मान्य है। दमन की पद्धति को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। क्रोध का आवेग आया है तो तत्काल उसे एक बार दबाना होगा। बाद में उसका परिशोधन आवश्यक है। यद्यपि कर्म-शास्त्र भी मानता है, उपशमन की पद्धति लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकती। उपशम प्रक्रिया से चलने वाला साधक ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंचकर भी वहां से वापस गिर जाता है। २. क्षयोपशम-इस प्रक्रिया में दोषों का उपशमन एवं क्षय साथ-साथ चलता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे उदात्तीकरण की पद्धति कहा गया है। यह मार्गान्तरीकरण की प्रक्रिया है। ३. क्षयीकरण-इस प्रक्रिया में आवेग पूर्ण क्षीण कर दिये जाते हैं। इसमें उपशमन नहीं होता, सबका नाश होता जाता है। आवेगों का उपशमन, क्षयोपशमन एवं क्षय होता है, यह कर्मशास्त्र की भाषा है। इसी भावना को मानस-शास्त्र, ६६ . व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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